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________________ चूरमेआदिकके लड़यों की खबर लीये जाते है, परंतु जीर्ण भंडारके उद्धार करणेकी बाततो क्या जाने, स्वप्नमेभी करते होवेंगके नही . प्र.१५०. क्या जिन मंदिर और साहम्मिवत्सल करने में पाप है, जो आप निषेध करते हो ? उ. जिन मंदिर बनवानेका और साहाम्मिवत्सल करनेका फलतो स्वर्ग और मोक्षका है, परंतु जिनेश्वर देवनेतो ऐसे कहाकि जो धर्मक्षेत्र बिगडता होवे तिसकी सार संसार पहिले करनी चाहिये, इस वास्ते इस कालमें ज्ञान भंडार बिगडता है, पहिले तिसका उद्धार करना चाहिये. जिन मंदिरतो फेरभी बन सकते है, परंतु जेकर पुस्तक जाते रहेंगे तो फेर कोन बना सकेगा । प्र.१५१. जिन मंदिर बनवाना और साहम्मिवत्सल करना, किस रीतका करना चाहिये ? उ. जिन गामके लोक धनहीन होवें, जिन मंदिर न बना सकें, और जिन मार्गके भक्त होवे, तिस जगे आवश्य जिन मंदिर कराना चाहिये और श्रावकका पुत्र धनहीन होवे तिसकों किसीका रुजगार में लगाके तिसके कुटंबका पोषण होवे ऐसे करे, तथा जिस काममें सीदाता होवे तिसमें मदद करे. यह साहम्मिवत्सल है, परंतु यह न समझनांके हम किसिजगे जिन मंदिर बनानेकों और बनिये लोकों के जिमावने रुप साहम्मिवत्सलका निषेध करते है, परंतु नामदारीके वास्ते जिन मंदिर बनवाने में अल्प फल कहते है, और इस गामके बनीयोने उस गामके बनियोंकों जिमाया और उस गामवालोंने इस गामके बनियोंकों जिमाया , परंतु साहम्मिकों साहाय्य करने की बुद्धिसें नही, तिसकों हम साहमिवत्सल नही मानते है, किंतु गधे खुरकनी मानते है. प्र.१५२. जैनमततो तुमारे कहनेसें हमको बहुत उत्तम मालुम होता है, तो फेर यह मत बहुत क्यों नहीं फैला है ? उ. जैनमतके कायदे ऐसे कठिन है कि तिन उपर अल्प सत्त्ववाले जिव बहुत नही चल सकते है, गृहस्थका धर्म और साधुका धर्म बहुत नियमोसे नियंत्रित है, और जैनमतका तत्त्व तो बहुत जैन लोकभी नही जान सकते है, तो अन्य मतवालोंको तो बहतही समझना कितने है, बौद्धमतके गोविंदआचार्यने भरुचमें जैनाचार्यसें चरचामे हार खाइ, पीछे जैनके तत्व जानने वास्ते कपटसें जैनकी दीक्षा लीनी. कितनेक जैनमतके शास्त्र पढके GOAGOAGAGEAGUAG00000000000GOAGUAGEAN५ 2006A6600000000000000000AGEAG0000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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