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________________ उ. श्वेतांबरमतके पुस्तकोमें तो जितना बुधकी बाबत कथन हमने श्री आचारंगजीकी टीकामें देखा बांचा है तितनातो हमने उपरके प्रश्नमें लिखा दीया है, परंतु जैनमतकी दुसरी शाखा जो दिगंबरमतकी है तिसमे एक देवसेनाचार्यने अपने रचे हुए दर्शनसार नामक ग्रंथमे बुधकी उत्पत्ति इस रीतीसें लिखी है. गाथा ।। सिरि पासणाह तित्थे ।। सरक्त तीरे पलासणयर त्थे ।। पिहि आसवस्स सीहे || महा लुदो बुद्धकित्ति मुणी ।।१।। तिमिपूरणासणेया || अहिगयपवड्वउपरमनते ।। स्तंबरंधरिता ।। पवढियतेणएयतं ।।२।। मंसस्सनस्थिजीवो || जहाफलेदहियउद्धसक्कराए || तम्हातंमुणित्ता ।। भरकंतोणत्थिपाविको ||३|| मंगएवड्गणिंग || दव्वदवंजहजलंतहएदं ।। इतिलोएघोसिता ।। पवत्तियंसंघसावं ।।४।। अणोकरेदिकम्मं ।। अणोतंYजदीदिसिद्धंतं ।। परिकप्पिउणणूणं ।। वसिकिच्चाणिस्यमुववणो ||५|| इति इनकी भाषा अथ बौद्धमतकी उत्पत्ति लिखते है. श्री पार्श्वनाथके तीर्थमे सरयू नदीके कांते उपर पलासनामे नगर में रहा हुआ, पिहिताश्रव नामा मुनिका शिष्य बुद्धकीर्ति जिसका नाम था, एकदा समय सरयू नदीमें बहुत पानीका पूर चढि आया तिस नदीके प्रयाहमें अनेक मरे हुए मच्छ वहते हुए कांठे उपर आ लगे, तिनको देखके तिस बुद्धकीर्त्तिने अपने मनमें ऐसा निश्चय कराकि स्वतः अपने आप जो जीव मर जावे तिसके मांस खानेमे क्या पाप है, तब तिसने अंगीकार करी हुइ प्रवज्याव्रत रूप छोड दीनी, अर्थात् पूर्व अंगीकार करे हुए धर्मसें भ्रष्ट होके मांस भक्षण करा और लोकों के आगे ऐसा अनुमान कथन कराकी मांस में जीव नही है, इस वास्ते इसके खाने मे पाप नही लगता है. फल , दुध, दहिं तरें तथा मदीरा पीने में भी पाप नही है. ढीला द्रव्य होने सें जलवत्. इस तरेंका प्ररूपणा करके तिसने बौद्धमत चलाया, और यह भी कथन करा के सर्व पदार्थ क्षणिक है, इस वास्ते पाप पुन्यका कर्ता अन्य है, और भोक्ता अन्य है. यह सिद्धांत कथन करा बौद्धमतके पुस्तको में ऐसानी लेका हो कि, बुधका एक देवदत्तनामा शिष्य था, तिसने बुधके साथ बुधकों मांस खाना छुडाने के वास्ते बहुत उगका करा, तोभी शाक्यमुनि बुधनें मांस खाना न छोड, तब देवदत्तने बुधकों छोड दीया, अब बुधने काल करा था, तिस दिननी चंदनामा सोनीके घरसें चावलोंके बीच सूयरका मांस रांधा हुआ खाके मरणको प्राप्त हुआ. यह कथनभी बुधमतके पुस्तकों में है, और श्वेतांबराचार्य - - 10000000000000000000000000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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