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सांप्रति कालमें मारवाडमें विचरे है, हमने अपनी आंखोसें देखा है, जिसकी पट्टावल आज पर्यंत विद्यमान है, तिस पार्श्वनाथजीके होने मे यही प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण बलवंत है ।
प्र.८०. कौ जाने किसी धूर्त्तनें अपनी कल्पनासें श्री पार्श्वनाथ और तिनकी पद परंपराय लिख दीनी होवेगी, इससे हमकों क्योंकर श्री पार्श्वनाथ हुए निश्चित होवें ?
उ. जिन जिन आचार्योंके नाम श्री पार्श्वनाथजीसें लेके आज तक लिखे हुए है, तिनोमें से कितनेक आचार्योंने जो जो काम करेहे वे प्रत्यक्ष देखनेमें आते है जैसें श्री पार्श्वनाथजीसें छठे ६ पट्ट उपर श्री रत्नप्रभसूरिजीने वीरात् ७० वर्ष पीछे उपकेश पट्ट में श्री महावीर स्वामीकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करी सो मंदिर और प्रतिमा आज तक विद्यमान है, तथा अयरणपुरकी बावनीसें ६ कोसके लगभग कोरंटनामा नगर उज्जड पडा है, जिस जगो कोटा नाम आजके कालमें गाम वसता है, तहांभी श्री महावीरजीकी प्रतिमा मंदिरकी श्री रत्नप्रभ सूरिजीकी प्रतिष्ठा करी हुइ अब विद्यमान कालमें सो मंदिर खड़ा है, तथा उसंवाल और श्रीमाणि जो बणिये लोकोंमें श्रावक ज्ञाति प्रसिद्ध है, वेभी प्रथम श्री रत्नप्रभसूरिजी नेही स्थापना करी है, तथा श्री पार्श्वनाथजीसें १७, सत्तरमें पट्ट उपरि श्री यक्षदेव सूरि हुए है, वीरात ५८५ वर्षे जिनोनें बारा वर्षीय कालमें वज्रस्वामीके शिष्य वज्रसेन के परलोक हुए पीछे तिनके चार मुख्य शिष्य जिनकों वज्रसेनजीने सोपारक पटणमें दीक्षा दीनी थी, तिनके नामसे चार शाखा तथा कुल स्थापन करे, वे ये है, नागेंद्र १, चंद्र २, निवृत्त ३ विद्याधर ४. यह चारों कुल जैन मतमें प्रसिद्ध है, तिनमें से नागेंद्र कुलमें उदयप्रभ मल्लिषेणसूरि प्रमुख और चंद्रकुलमें वड, गच्छ, तप गच्छ, खरतर गच्छ, पूर्णवल्लीय गच्छ, देवचंद्रसूरि कुमारपालका प्रतिबोधक श्री हेमचंद्रसूरि प्रमुख आचार्य हुए है, तथा निवृत्तकुलमें श्री शीलांकाचार्य श्री द्रोणसूरि प्रमुख आचार्य हुए है, तथा विद्याधरकुलमें १४४४ ग्रंथका कर्ता श्री हरिभद्रसूरि प्रमुखाचार्य हुए है, तथा मैं इसग्रंथका लिखने वाला चंद्रकुलमें हुं, तथा पैंतीसमें पट्ट उपर श्री देवगुप्तसूरिजी हुए है, जिनोंके समीपे श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजीने पूर्व २ दो पढे थे, तथा श्री पार्श्वनाथजीके ४३ मे पट्ट उपर श्री कक्कसूरि पंच प्रमाण ग्रंथके कर्ता हुए है, सो ग्रंथ विद्यमान है
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