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________________ चला था, तिनके केशी कुमार नामे आचार्य पांचसो ५०० साधुयों के साथ विचरते थे, और केशी कुमारजी गृहवासमें उज्जायिनिका राजा जयसेन और तिसकी पटराणी अनंगसुंदरी नाम तिनके पुत्र थे, विदेशि नामा आचार्यके पास कुमार ब्रह्मचारीने दीक्षा लीनी, इस वास्ते केशी कुमार कहे जाते है, श्री पार्श्वनाथके बडे शिष्य श्री शुभदत्तजी गणधर १ तिनके पद उपर श्री आर्यसमुद्र ३, तिनके पद उपर श्री केशी कुमारजी हुए है, जिनोंने श्वेतंबिका नगरीका नास्तिकमति प्रदेशी नामा राजेकों प्रतिबोधके जैनधर्मी करा, और श्री महावीरजीके बड़े शिष्य इंद्रभूति गौतमके साथ श्रावस्ति नगरीमें श्री केशी कुमार मिले तहां गौतम स्वामीके साथ प्रश्नोत्तर करके शिष्यों का संशय दूर करके श्री महावीरका शासन अंगीकार करा तथा श्री पार्श्वनाथजीके संतानो मेंसे कालिक पुत्र १ मैथिली २ आनंदरक्षित ३ काश्यप ४ ये नामके चार स्थविर पांचसौ साधुयोंके साथ तुंगिका नगरीमें आये तिस समयमें श्री महावीर भगवंत इंद्रभूति गौतमादि साधुयोंके साथ राजगृह नगर में विराजमान थे, तथा साकेतपुरका चंद्रपाल राजा तिसकी कलासवेश्या नामा राणी तिनका पुत्र कलासवैशिक नामे तिसने श्री पार्श्वनाथके संतानीये श्री स्वयंप्रभाचार्यके शिष्य वैकुंठाचार्यके पास दीक्षा लीनी. पीछे राजगृहनगरमें श्री महावीरके स्थविरोसें चर्चा करके श्री महावीरका शासन अंगीकार करा इसीतरे पार्श्वसंतानीये गंगेय मुनि तथा उदकपेडाल पुत्र मुनि श्री महावीरका शासन अंगीकार करा. इन पूर्वोक्त आचार्योंके समयमे वैशालि नगरीका राजा चेटकादि और क्षत्रियकुंडनगरके ज्ञातवंशी काश्यप गोत्री सिद्धार्थ राजादि श्रावक थे, और त्रिसलादि श्राविकायो थी. बुधधर्मके पुस्तकमें विशालि नगरीके राजाकों बुधके समय में पाषंड धर्मके मानने वाला अर्थात् जैनधर्म के मानने वाला लिखा है, और बुधधर्मके पुस्तकमें ऐसान लिखा है कि एक जैन धर्मी बडे पुरुषकों बुधने अपने उपदेशसें बौद्ध धर्मी करा, इस वास्ते श्री महावीरसें पहिलां जैनधर्म भरतखंडमें श्री पार्श्वनाथके शासनसें चलता था । प्र. ८९. श्री महावीरजीसें पहिले तेवीसमें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी हुए है इस कथनमें क्या प्रमाण है. उ. श्री पार्श्वनाथजीसें लेके आजपर्यंत श्री पार्श्वनाथकी पद परंपरामें ८३ तैरासी आचार्य हुए है, तिनमें से सर्व सें पिछला सिद्ध सूरि नामे आचार्य Jain Education International ३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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