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________________ आर्य महागिरि सुहस्तिसे लेके श्री वज्रस्वामी तक जो वज्रस्वामी श्री महावीरसें पीछे ५८४ में वर्ष विक्रम संवत् ११४ में स्वर्गवासी हुए है तहां तक येह आचार्य दश पूर्व और इग्यारे अंगके कंठयाग्र ज्ञानवाले रहे, तिनके नाम आर्य महागिरि १ आर्यसुहस्ति २ श्री गुणसुंदर सूरि ३ श्यामाचार्य ४ स्कंधिलाचार्य ५ श्वेतीमित्र ६ श्री धर्मसूरि ७ श्री भद्रगुप्त ८ श्री गुप्त ९ वज्रस्वामी १० श्री वज्रस्वामीके समीपे तोसलीपुत्र आचार्यका शिष्य श्री आर्यरक्षितसूरिजीने साडे नव पूर्व पाठार्थसें पठन करे. श्री आर्यरक्षितसूरि तक सर्व सूत्रोंके पाठ उपर चारोही अनुयोगकी व्याख्या अर्थात् जिस श्लोक में चरण करणानयोगकी व्याख्या जिन अक्षरोंसे करते थे तिसही श्लोकके अक्षरोंसे द्रव्यानुयोगकी व्याख्या और धर्मकथानुयोगकी और गणितानुयोगकी व्याख्या करते थे. इसतरें अर्थ करणेकी रीती । श्री सुधर्मस्वामीसे लेके श्री आर्यरक्षित सुरि तक रही, तिनके मुख्य शिष्य विंध्यदुर्वलिकापुष्पादिकी बुद्धि जब चारतेरें के अर्थ समझने में गभराइ तब श्री आर्यरक्षित सूरिजीने मनमें विचार करा इन नव पूर्वधारीयोंकी बुद्धिमें जब चार तरेंका अर्थ याद रखना कठिन पडता है, तो अन्य जीव अल्प बुद्धिवाले चार तरेंका सर्व शास्त्रोंका अर्थ क्युं कर याद रखेंगे. इस वास्ते सर्व शास्त्रोंके पाठोंका अर्थ एकैक अनुयोगकी व्याख्या शिष्य प्रशिष्योंकों सिखाइ. शेष व्यवच्छेद करी सोइ व्याख्या जैन श्वेतांबर मतमे आचार्योंकी अविच्छिन्न परंपरायसे आज तक चलती है, तिनके पीछे स्कंधिला आचार्य श्री महावीरजीके २४ मे पाट हए है. नंदी सूत्रकी वृत्तिमें श्री मलयगिरि आचार्ये ऐसा लिखाहैकि श्री स्कंधिलाचार्यके समय में बारां वर्ष १२ का दुर्मिक्ष काल पडा, तिसमें साधुयोंकों भिक्षा न मिलनेसें नवीन पढना और पिछला स्मरण करना बिलकुल जाता रहा और जो चमत्कारी अतिशयवंत शास्त्रथे वेभी बहुत नष्ट हो गये. और अंगोपांगभी भावसें अर्थात् जैसे स्वरूप वालेथे तैसे नही रहै. स्मरण परावर्तनके अभावसें जब बारां वर्षका दुर्भिक्ष काल गया और सुभिक्ष हुआ, तब मथुरा नगरीमें स्कंधिलाचार्य प्रमुख श्रमण संघने एकठे होके जो पाठ जितना जिस साधुके जिस शास्त्रका कंठ याद रहा सो सर्व एकत्र करके कालिक श्रुत अंगादि और कितनाक पूर्व गत श्रुत किंचितमात्र रहा हआ जोडके अंगादि घटन करे, इस वास्ते इसकों माथुरि वाचना कहते है कितनेक आचार्य ऐसे कहते है १२ वर्षके कालके वससे एक स्कंधिलाचार्यकों वर्जके शेष सर्वाचार्य मर गये थे. गीतार्थ अन्य कोइनी नही रहा था, परं सर्व A YAYAYAYAX 2 100000000GOAGOAG60000000000000GORGOOGL Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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