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अन्य कोई कारण था ।
उ. लिखनेतो जानते थे, परं सर्व ज्ञान लिखने की शक्ति किसीभी पुरुषमें नहीं थी, क्योंकें भगवंतने जितना ज्ञानमें देखा था तिसके अनंतमें भागका स्वरूप वचन द्वारा कहा था । जितना कथन करा था तिसके अनंतमें भाग प्रमाण गणधरोने द्वादशांग सूत्र में ग्रंथ करा, जेकर कोइ १२ बारमें अंग द्रष्टिबादका तीसरा पूर्व नामा एक अध्ययन लिखेतो १६३८३ सोलांहजार तीन सौ त्रिराशी हाथीयों जितने साहीके ढेर लिखने में लगें, तो फेर संपूर्ण द्वादशांग लिखनेकी किसमे शक्ति हो सकती है, और जब तीर्थंकर गणधरादि चौदह पूर्व धारी विद्यमान थे तिनके आगे लिखने का कुछ भी प्रयोजन नही था और देशमात्र ज्ञान किसी साधु, श्रावकने प्रकरण रूप लिख लीया होवे, अपने पठन करने वास्ते , तो निषेध नही.
प्र.७२. पूर्वोक्त जैनमतके सर्व पुस्तक श्री महावीरसें और विक्रम संवत की शुरु यातसें कितने वर्ष पीछे लिखे गये है।
उ. श्री महावीरजीसें ९८० नवसौ अस्सी वर्ष पीछे और विक्रम संवत् ५१० में लिखे गये है।
प्र.७३. इन शास्त्रों के कंठ और लिखने में क्या व्यवस्था बनी थी, और यह पुस्तक किस जगे किसने किस रीती से कितने लिखे थे ।
उ. श्री महावीरजीसें १७० वर्ष तक श्री भद्रबाहु स्वामी यावत् (द्वादशांग) चौदह पूर्व और इग्यारे अंग जैसे सुधर्म स्वामीने पाठ ग्रंथन करा था तैसाही था, परं भद्रबाहु स्वामीने बारां १२ चौमासे निरंतर नेपाल देशमें करे थे, तिस समयमें हिंदुस्थानमें बारां वर्षका काल पडा था, तिसमें भिक्षा ना मिलने से एक भद्रबाहु स्वामीकों बर्जके सर्व साधुयों के कंठसें सर्व शास्त्र बीच बीचसें कितनेही स्थान विस्मृत हो गये, जब बारां वरसका काल दूर हुआ, तब सर्व आचार्य साधु पाडलिपुत्र नगरमें एकठे हुए । सर्व शास्त्र आपसमें मिलान करे तब इग्यारे अंग तो संपूर्ण हुए, परंतु चौदह पूर्व सर्व सर्वथा भूल गए, तब संघकी आज्ञासें स्थुलभद्रादि ५०० सौ तीक्ष्ण बुद्धिवाले साधु नैपाल देशमे श्री भद्रबाहु स्वामीके पास चौदह पूर्व सीखने वास्ते गये, परंतु एक स्थुलभद्र स्वामीने दो वस्तु न्यून दश पूर्व पाठार्थसें सीखे. शेष चार पूर्व केवल पाठ मात्र सीखे. श्री भद्रबाहुके पाट उपर श्री स्थुलभद्र स्वामी बैठे, तिनके शिष्य
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