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________________ करने से ती० १९ शास्त्रका बहुमान करने से ती० १९ यथाशक्ति अर्ह उपदिष्ट मार्गकी देशनादि करके शासनकी प्रभावना करे तो तीर्थंकर नाम कर्म बांधे है २० कोई जीव इन वीसों कृत्यों मे चाहो कोइ एक कृत्यसें तीर्थंकर नाम कर्म बांधे है. कोइ दो कृत्यों से कोइ तीनसे एवं यावत् कोइ एक जीव वीस कृत्यों से बांधे है यह उपरका कथन ज्ञाताधर्मकथा १ कल्पसूत्र २ आवश्यकादि शास्त्रों मे है और तीर्थंकर पांच महाविदेह पांच भरत पांच ऐरावत इन पंदरां क्षेत्रोमें उत्पन्न होते है और इस भरत खंडमे आर्य देश साढे पच्चीसमे उत्पन्न होते है वे देश २५।। साढे पचवीस ऐसे है || उत्तर तर्फ हिमालय पर्वत और दक्षिण तर्फ विध्याचल पर्वत और पूर्व पश्चिम समुद्रांत तक इसकों आर्यावर्त कहते है इसके बीचही साढे पंचवीश देश है तिनमें तीर्थंकर उत्पन्न होते है यह कथन अभिध्यान चिंतामणि तथा पन्नवणा आदि शास्त्रों मे है अवसर्पिणी कालके अर्थात् छ हिस्से है तिनमे तीसरे चौथे विभागमे तीर्थंकर उत्पन्न होते है और उत्सर्पिणी कालके छ विभागो में से तीसरे चोथे विभाग मे उत्पन्न होते है यह कथन जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों मे है । प्र.४. तीर्थंकर क्या करते है और तीर्थंकरो के गुणा का बरनन् करो. उत्तर. तीर्थंकर भगवंत बदले के उपकार की इच्छा रहित राजा रंक ब्राह्मण और चंडाल प्रमुख सर्व जाति के योग्य पुरुषांकों एकांत हितकारक संसार समुद्रकी तारक धर्म देशना करते है और तीर्थंकर भगवंत के गुणतो इंद्रादिभी सर्व बरनन् नही करसक्ते है तो फेर मेरे अल्प बुद्धीवालेकी तो क्या शक्ति है तोभी संक्षेपसे भव्य जीवांके जानने वास्ते थोडासा बरनन् करते है अनंत केवलज्ञान १ अनंत केवलदर्शन २ अनंत चारित्र ३ अनंत तप ४ अनंत वीर्य ५ अनंत पांच लब्धि ६ क्षमा ७ निर्लोभता ८ सरलता ९ निरभिमानता १० लाघवता ११ सत्य १२ संयम १३ निरच्छिकता १४ ब्रह्मचर्य १५ दया १६ परोपकारता १७ राग-द्वेषरहित १८ शत्रु मित्रभावरहित १९ कनक पथर इन दोनो ऊपर समभाव २० स्त्री और तृण उपर समभाव २१ मांसाहाररहित २२ मदिरापानरहित २३ अभक्ष्य भक्षणरहित २४ अगम्य गमनरहित २५ करुणासमुद्र २६ सूर २७ वीर २८ धीर २९ अक्षोभ्य ३० परनिंदा रहित ३१ अपनी स्तुति न करे ३२ जो कोइ तिनके साथ विरोध करे तिसकोंभी तारनेकी इच्छावाले ३३ इत्यादि अनंत गुण तीर्थंकर भगवंतो मे है सो कोइनी - - - ॐ ॐ S E SSIXSESXS GOAG006AGOAGDAGAGDAGOGOAGUAGORGOAN | 3 २ BAA6A6A6A6AGAG000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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