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प्ररूप शक्ता है २ निकेवल यति वेषधारक है ३ इति प्रथमो गुरु भेद स्वरूप कथनं ||१||
दूसरा गुरु क्रोंच पक्षी समान है. २
क्रौंचपक्षीमें सुंदर रूप नही है, देखने योग्य वर्णादिके अभावसें १ क्रियाभी अच्छी नही, कीडे आदिकों के भक्षण करने सें २ केवल उपदेश (मधुर ध्वनि रूप ) है ३ ऐसे ही कितनेक गुरुयों में रूप नही, चारित्रिये साधु समान वेष के अभावसें १ सत क्रियाभी नही, महाव्रत रहित और प्रमादके सेवनेसें २ परंतु उपदेशशुद्ध मार्ग प्ररूपण रूप है ३ प्रमादमें पडे और परिव्राजकके वेषधारी ऋषभ तीर्थंकरके पोते मरीच्यादिवत् अथवा पासस्थे आदिवत् क्योंकि पासस्थेमें साधु समान क्रियातो नही है १ और प्रायें सुविहित साधु समान वेषभी नही, यदुक्त | वस्त्रंदुपडिलेहियमपाणसकन्नि अंदुकूलाई इत्यादि । अर्थ :- वस्त्र दुप्रतिलेखित प्रमाण रहित सदशक पवडी रखनेसें सुविहितका वेष नही २ परं शुद्ध प्ररूपक है, एक यथाछंदेकों वर्जके पासस्था १ अवसन्ना २ कुशील ३ संसक्त ४ ये चारों शुद्ध प्ररूपक हो सकते है, परंतु दिन प्रतिदश जणोका प्रतिबोधक नंदिषेण सरीषे इस भांगेमें न जानने, क्योंके नंदिषेणके श्रावकका लिंग था । इति दुसरा गुरु स्वरूप भेद ||२||
तीसरा गुरु भ्रमरे समान है.
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भ्रमर में सुंदर रूप नही, कृश्न वर्ण होने सें १ उपदेश (तिसका उदात्त मधुर स्वर ) नही है २ केवल क्रिया है उत्तम फूलों में सें फूलोंकों विना दुःख देनेसे तिनका परिमल पीनेसें ३ तैसेही कितने क गुरु यतिके वेषवालेभी नही है १ और उपदेशकभी नही है २ परंतु क्रिया है, जैसे प्रत्येक बुद्धादिकों मे प्रत्येक बुद्ध, स्वयंबुद्ध तीर्थंकरादि यद्यपि साधुतो है, परंतु तीर्थगत साधुयोंके साथ प्रवचन १ लिंग से २ साधर्मिक नही है, इस वास्ते यति वेष भी नही, १ उपदेशक भी नही २ "देशनाऽनासेवकः प्रत्येकबुद्धादिरित्यागमात्" क्रियातो है, क्योंकि तिस भवसेंही मोक्ष फल होना है ।। इति तृतियो गुरु स्वरूप भेद ||३||
चौथा गुरु मोर समान है. ४
जैसें मोर में रूपतो है पंच वर्ण मनोहर १ और शब्द मधुर केकारूप
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