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________________ ९६ करोड गाम इस छोटेसे भरतखंड में क्योंकर वसेंगे, इनके उत्तर अंगुलसत्तरीमें बहुत 'अच्छीतरेंसें दीन है, सो अंगुलसत्तरी वांचके देखनां चिंता पूर्वोक्त नही करनी, यह मेरा इस प्रश्नोत्तरका लेख बुद्धिमानोंकों तो संतोषकारक होवेगा, और असत् रूढीके माननेवालोंकों अच्चंभा जनक होवेगा, इसी तरें अन्यभी जैनमतकी कितनीक वाते असत्ढिसें शास्त्रसें जो विरुद्ध है, सो मान रखी है, तिनका स्वरूप इहां नही लिखते है । प्र.१५९. गुरु कितने प्रकारके किस किसकी उपमा समान और रूप १ उपदेश २ क्रिया ३ कैसी औरकैसे के पासों धर्मोपदेश नही सुननां, और किस पासों सुननां चाहिये. उ. इस प्रश्न उत्तर संपूर्ण नीचे मुजब समझ लेना. एक गुर चास (नीलचास) पक्षी समान है. १ जैसें चाष पक्षीमें रूप है, पांच वर्ण सुंदर होने सें और शकुनमेंभी देखने लायक है १ परंतु उपदेश (वचन) सुंदर नही है, २ कीडे आदिके खाने सें क्रिया (चाल) अच्छी नही है ३ तैसेही कितनेक गुरु नामधारीयोमें रूप (वेष) तो सुविहित साधुका है १ परं अशुद्ध ( उत्सूत्र) प्ररूपणेसे उपदेश शुद्ध नही, २ और क्रिया मूलोत्तर गुण रूप नही है, प्रमादसे निरवद्याहारादि नही गवेषण करते है ३ यदुक्तं ।। दगपाणंपुप्फफलंअणेसणिज्जं गिहच्छकिच्चाइंअजयापडिसेवंतिजइवेसविडंब गानवरं ||१|| इत्यादि । अस्यार्थः । सच्चित्त पाणी, फूल, फल, अनेषणीय आहार गृहस्थके कर्तव्य जिवहिंसा १ असत्य २ चोरी ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ रात्रि भोजन स्नानादि असंयमी प्रति सेवते है, वेभी गृहस्थ तुल्यही है, परंतु यतिके वेषकी विटंबना करने से इस वात सें अधिक है, ऐसे तो संप्रति कालमें दुःषम आरेके प्रभावसें बहुत है, परंतु तिनके नाम नही लिखते है, अतीत कालमें तो ऐसे कुलवालकादिकोंके द्रष्टांत जान लेने, कुलवालक में सुविहित यतिका वैषतो था. १ परं मागधिका गणिकाके साथ मैथुन करने में आशक्त था, इस वास्ते अच्छी क्रिया नही थी २ और विशाला अंगादि महा आरंभादिका प्रवर्त्तक होनेसे उपदेशभी शुद्ध नही था, साधु होने से वा उपदेशका तिसकों अधिकार नही था, ३ ऐसे ही महाव्रतादि रहित १ उत्सूत्र प्ररूपक (गुरु कुलवास त्यागी) सो कदापि शुद्ध मार्ग नही सागन्य Jain Education International १०१ For Private & Personal Use Only ७० www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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