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________________ गच्छोमें मतानुचारीयो में विभाग पडाथा, और सो भाग हरेक शाला (गण) का कितनेक तिसके अंदर भाग हुए थे. ऊपर लिखे हुए नामों वाले पुरुषांको वाचक अथवा आचार्यका इलकाब मिलता है, जो बुद्धिष्ट माणकके साथ मिलता है और सो इलकाब (पदवीका नाम) बहुत प्रसिद्ध रीतीसें जैनके जो यति लोक साधु धर्म संबंधी पुस्तकों श्रावक साधुयोंकों समझने लायक गिणनेमे आतेथे तिनको देनेमें आते थे, परंतु जो साधु गणि (आचार्य) एक गच्छका मुखीया कहने में आताथा, तिसका यह भारी इलकाब था, और हाल में भी पिछली रीती प्रमाणे बडे साधु मुख्य आचार्यकों देने मे आता है शाला (गणो) मेसें कोटिक गणके बहुत फांटे है, और तिसके पेटे भाग होके दो कुल, दो साखायों और एक भत्ति हुआ है, इस रास्ते तिसका बडा लंबा इतिहास होना चाहिये, और यह कहना अधिक नही होवेगा, क्योंकि लेखोंके पुरावे उपरसें तिसकी स्थापना अपणे ईसरी सनकी शुरुआतसें पहिले थोडेसें थोडा काल एक सैंकडा (सौ वर्ष) में हूइथी, वाचक और गणि सरीषे इलकाबोंकी तथा ईसवी सन पहिले सैकेके अंतमें असलकी शालाकी हयाती बतलावे है के तिस बखतमें जैन पंथकी बहुत मुदत हुआं चलती आत्मज्ञानीकी हयाती हो चुकीथी (कितनेही कालसें कंठाग्र ज्ञानवान् मुनियोकि परंपरायसें संतति चली आतीथी) तिस संततिमें साधु लोक तिस वखतमें अपने पंथकी वृद्धिकी बहुत हुस्यारीसें प्रवृत्ति राखते थे, और तिस कालसें पहिलेभी राखी होनी चाहिये, जेकर तिनोमें वाचकथे तो यहभी संभवित है के कितनेक पुस्तक वंचाने सीखाने वास्ते बराबर रीतीसें मुकरर करा हुआ संप्रदाय तथा धर्म सबंधी शास्त्रभी था. कल्पसूत्रके साथ मिलने सें येह लेखों श्वेतांबरमतकी दंत कथाका एक बडा भागकों (श्वेतांबरके शास्त्रके बड़े भागकों) बनावटके शक ( कलंक) सें मुक्त करते है, (श्वेतांबर शास्त्र के बहुत हिस्से बनावटके नही है किंतु असली सच्चे है) और स्थिविरावलिके जिस भाग ऊपर हालमे हम अख्तियार चला सकते है, सो भाग निःकेवल जैन के श्वेतांबर शाखा की वृद्धिका भरोसा राखने लायक हवाल तिसमें हयाती साबित कर देता है, और तिस भागमें भी ऐसीयां अकस्मात् भूले तथा खामीयों मालुम होती है, के जैसे कोइ कंठाग्रकी दंत कथाकों हालमें लिखता हुआ बीचमे रही जाए ऐसे हम धार सकते है, परिणाम (आशय) प्रोफेसर जेकोबी और मेरी माफक जे सखस तकरार करता यह Jain Education International ves ९६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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