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________________ उदयसें किसिकों पढावे नही, सिद्ध प्रवचन अरिहंत चैत्यादिककी निंदा करे, भक्ति न होवे, सो जीव हीन जाति नीच गोत्र बांधे ।। इति गोत्रकर्म ७. अथ आठमा अंतराय कर्मका स्वरूप लिखते है, तिसके पांच भेद है, जिस कर्मके उदयसें जीव शुद्ध वस्तु आहारादिकके हूएभी दान देनेकी इतनी करे, परंतु दे नही सके, सो दानांतराय कर्म १ जिस कर्म के उदय से देने वाले के हूएभी इष्ट वस्तु याचनेसेभी न पावे. व्यापारादिमें चतुरभी होवे तोभी नफा न मिले, सो लाभांतराय कर्म २ जिस कर्मके उदयसें एक वार भोगने योग्य फूलमाला मोदकादिकके हूएभी भोग न कर सके, सो भोगांतराय कर्म ३ जिस कर्मके उदयसें जो वस्तु बहुत वार भोगने में आवे , स्त्री आभर्ण वस्त्रादि तिनके हूएभी वारंवार भोग न कर सके, उपभोगांतराय कर्मक जिस कर्मके उदयसें मिथ्या मतकी क्रिया न कर सके, सो बालवीर्यांतराय कर्म १ जिसके उदयसें सम्यगद्रष्टी, देश वृत्ति धर्मादि क्रिया न कर सके, सो बाल पंडित वीर्यांतराय कर्म, जिसके उदयसें सम्यग् द्रष्टी साधु मोक्ष मार्गकी संपूर्ण क्रिया न कर सके, सो पंडित वीर्यांतराय कर्म . अथ अंतराय कर्मके बंध हेतु लिखते है, श्री जिन प्रतिमाकी पुजाका निषेध करे, उत्सूत्रकी प्ररूपणा करे, अन्य जीवांकों कुमार्गमें प्रवर्त्तावे, हिंसादिक अठारह पाप सेवनेमें तत्पर होवे तथा अन्य जीवांको दान लाभादिकका अंतराय करे, सो जीव अंतराय कर्म बांधे, इति अंतराय कर्म ९. इस तरें आठ कर्मकी एकसो अडतालीस १४८ कर्म प्रकृतिके उदयसें जीवोंके शरीरादिककी विचित्र रचना होती है, जैसें आहारके खानेसें शरीर में जैसे जैसें रंग और प्रमाण संयुक्त हाड, नशा, जाल, आंखके पडदे मस्तकके विचित्र अवयवपणे तिस आहारका रस परिणमता है, यह सर्व कर्माके उदयसें शरीर की सामर्थ्यसें होता है, परंतु यहां ईश्वर नही कुछभी कर्ता है, तैसेंही काल १ स्वभाव २ नियति ३ कर्म ४ उद्यम ५ इन पांचो कारणोंसें जगतकी विचित्र रचना हो रही है. जेकर ईश्वर वादी लोक इन पूर्वोक्त पांचोके समवायका नाम ईश्वर कहते होवे, तब तो हमभी ऐसे ईश्वरकों कर्ता मानते है. इसके सिवाय अन्य कोइ कर्ता नही है, जेकर कोइ कहे जैनीयोंने स्वकपोल कल्पनासें कर्माके भेद बना रखे है, यह कहना महा मिथ्या है, क्योंकि कार्यानुमानसें जो जैनीयोने कर्मके भेद माने है वे सर्व सिद्ध होते है, ओर पूर्वोक्त सर्व कर्मके - - - NGOAGORG0000000AGOOGODGOAGORGANAGAR Food000000000000000000000AGERGOAG00000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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