SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होवे, सो अगुरु लघु नाम कर्म ७० जिसके उदयसें चतुर्विध संघ तीर्थ थापन करके तीर्थंकर पदवी लहे, सो तीर्थंकर नामकर्म ७१ जिस कर्मके उदयसें जीवके शरीरमें हाथ, पग, पिंडी, दांत, मस्तक, केश रोम शरीरकी नशांकी विचित्र रचना, हाडोंकी यथार्थ विचित्र रचना, आंख, मस्तक प्रमुखके पडदे यथार्थ यथा योग्य अपने २ स्थानमे उत्पन्न करे होवे, संचयसें जैसें वस्तु बनती है तैसेही निर्माण कर्मके उदयसें सर्व जीवांके शरीरोंमे रचना होती है, सो निर्माणकर्म ७२ जिसके उदयसें जीव अधिक तथा न्यून अपने शरीरके अवयव करके पीडा पामे, सो उपघात नामकर्म ७३ जिसके उदयसें जीव थावरपणा थोडी हलने चलने की लब्धि शक्ति पावे, सो त्रस नाम कर्म है ७४ जिस कर्मके उदयसें जीव सूक्ष्म शरीर छोड के बादर चक्षु ग्राह्य शरीर पावे, सो बादर नामकर्म ७५ जिस कर्मके उदयसें जीव प्रारंभ करी हइ छ६ पर्याप्ति अर्थात् आहार पर्याप्ति १शरीर पर्याप्ति २ इंद्रिय पर्याप्ति ३ सासोत्स्वास प्रर्याप्ति ४ भाषा पर्याप्ति ५ मनः पर्याप्ति ६ पूरी करे, सो पर्याप्त नामकर्म ७६ जिसके उदयसें एक जीव एकही उदारिक शरीर पावे, सो प्रत्येक नामकर्म ७७ जिस कर्म के उदयसें जीवके हाड दातादि द्रढ बंध होवे, सो थिर नामकर्म ७८ जिस कर्मके उदय से नाभिसें उपल्या भाग शरीरका पावे, दूसरे के तिस अंगका स्पर्श होवे तोभी बुरा न माने, सो शुभ नामकर्म ७९ जिस कर्मके उदयसें विना उपकारके करयांमी तथा संबंध विना वल्लभ लागे, सो सौभाग्य नामकर्म ८० जिस कर्मके उदयसें जीवका कोकलादि समान मधुर स्वर होवे , सो सुस्वर नामकर्म ८१ जिस कर्मके उदयसें जीवका वचन सर्वत्र माननीय होवे, सो आदेय नामकर्म ८२ जिस कर्मके उदयसें जगतमें जीवकी यशकीर्ति फैले, सो यश कीर्ति नामकर्म ८३ जिस कर्मके उदयसें जीव त्रसपणा छोडी स्थावर पृथ्वी , पानी, वनस्पत्यादिकका जीव हो जावे, हली चली न सके, सो स्थावर नाम कर्म ८४ जिस कर्मके उदयसें सूक्ष्म शरीर जीव पावे, सो सूक्ष्म नामकर्म ८५ जिस कर्मके उदयसें प्रारंभी हुइ पर्याप्ति पूरी न कर सके, सो अपर्याप्त नामकर्म ८६ जिस कर्मके उदयसें अनंते जीव एक शरीर पामे, सो साधारण नामकर्म ८७ जिस कर्मके उदयसें जीवके शरीर में लोहु फिरे, हाडादि सिथल होवे, सो अथिर नामकर्म ८८ जिस कर्मके उदयसें नाभीसें नीचेका अंग उपांगादि पावे, सो अशुभ नामकर्म ८९ जिस कर्मके उदयसें जीव अपराधके विना करेही बुरा लगे, सो दौर्भाग्य - । G00GUAG0000000000AGUAG00GOAGAGEAGOOGC PAGVAGRAGAGAGAG00000GOAGOOGOAGUAGer Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy