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________________ कितनी ही विद्याओं - कलाओं में निपुण बना हुआ है जिन्हें माता जानती भी नहीं होगी; फिर माँ सो माँ, और स्वयं पुत्र सो पुत्र । शिक्षण के बडप्पन से उपकारिता का बडप्पन और गुणशीलता का बडप्पन कहीं बढ़ चढ़ कर है । अरिहंत प्रभु और सिद्ध भगवान् का ज्ञान समान है, इसके अतिरक्त सिद्ध के चार गुण अधिक हैं। फिर भी अरिहंत की विशेषता यह है कि वे परम उपकारी है । क्योंकि जो सिद्ध बने हैं उन्हें सिद्ध बनानेवाले अरिहंत देव है । इसीलिए पंचपरमेष्ठि में प्रथम स्मरण अरिहंत का किया गया, पहला नमस्कार अरिहंत को किया गया। इस दृष्टि से पहला बडप्पन अरिहंत का स्थापित किया गया । बस, इस प्रकार पुत्र भले ही बहुत पढा हुआ हो, फिर भी माता उसकी उपकारिणी है, अतः माता का उससे बढ़ कर बडप्पन माना जाता है; उपकारी का बडप्पन भूलने में कृतज्ञता भुला दी जाती है । कृतज्ञता को भूलना - चूकना अर्थात् बुनियादी खराबी गिनी जाय । 'जय वीयराय' सूत्र में 'गुरूजन सेवा' जो मांगी जाती है उसे लौकिक सौंदर्य कहा है, 'यह हो तभी लोकोत्तर सौंदर्य आता है,' ऐसा व्याख्याकार ने कहा है अर्थात् गुरूजन सेवा नींव में होनी चाहिए। 'गुरूजन सेवा' में क्या समाविष्ट है ? उपकारी माता पिता, विद्यागुरू आदि के प्रति कृतज्ञता मन में लाना इसमें समाविष्ट है । उनके प्रति पूज्यभाव धारण करना और उनकी भक्ति करना इसमें आता है। वह न हो तो भला शुभगुरुयोग और उनके वचन की सेवा के रूप में लोकोत्तर सौंदर्य कहाँ सस्ता पड़ा है कि यों हि मिल जाय ? इसीलिए कुवलयचंद्र कुमार माता को प्रणाम कर आशीर्वाद लेता है । विवेक का महत्त्व यहाँ माता का भी विवेक कैसा है कि वह पुत्र से कहती है, “बडे, अर्थात तुम्हारे पिताजी बुद्धिमान हैं । ऐसे वे जो कहें सो तुम करो, और सुखी बनो । ' विवेकी माँ ही यह मानती है कि बेटे को अपने बाप का कहा मानना योग्य है, मानना ही चाहिए । 'खुद को बारह वर्ष बाद पुत्र का मुँह देखने मिला है इस लिए बाप भले ही बेटे से कहे, - चलो, घुडसवारी करने, परन्तु बेटे को खुद अपने पास बिठाये रखना, जाने नहीं देना, ऐसी बात यहाँ नहीं है। साथ ही पुत्र को जो करना है सो अपने विचार से करना है, पर बाप कहे इतने मात्र से कहा हुआ सब करना नहीं है" ऐसी मान्यता भी यहाँ नहीं है । यह सब विवेक का प्रताप है । Jain Education International - ८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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