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माँ-बापों को खास तौर पर ध्यान रखना चाहिए कि संतान को आधुनिक विद्यालयों एवं मित्र-मंडलियों में दाक्षिण्य-विनय-सेवा, मधुर स्वभाव आदि की शिक्षा नहीं मिल सकती; अतः उन्हे छुटपन से ही स्वयं इसकी शिक्षा देनी चाहिए। इस हेतु से उन्हें हर रोज अपने पास बिठा कर पाव या आधा घंटा सत्संग देना चाहिए । स्कूल में क्या पढ़ कर आया, उसकी खबर लेना, उसमें आये हुए अनर्थ का निराकरण - खंडन - हानि बताकर उसके असर को मिटा देना और उत्तम गुणवर्धक बातें कहना, दुनिया के अनुभव बताना - यह सब हर रोज ऐसे होना चाहिए जैसे प्रतिज्ञा या व्रत हो। अपने अन्य सत्रह काम हों उन्हे गौण बनाइये, परन्तु इस शिक्षण कार्य को प्रधानता दीजिए अन्यथा आप की ही संतान से धर्मपरंपरा को धक्का लगेगा, और इस के लिए मुख्यतः आपही को उत्तरदायी माना जाएगा।
कुवलयचंद्र कुमार की दाक्षिण्यादि में विशेष प्रवीणता जानकर राजा को बड़ा संतोष हुआ। अब वह उसे उसकी माता के पास भेजता है । माता भी उसके विनयादि गुण देख कर आशीर्वाद देती है कि, 'पुत्र ! तुमने सत्पुरुष - सज्जन के स्वभाव के अनुरूप अपना हृदय बनाया है, तू दीर्घायु हो, देवों, गुरूजनों आदि के प्रभाव से तेरा सदा-सर्वदा महान् उदय हो | - (तू सदा उन्नतिशील बनें ।)
अब यहाँ यह देखने की बात है कि अभी तो कुमार बारह वर्ष बाद माता-पिता से मिला ही है कि इतने में वहाँ एक कैसी आकस्मिक - अनपेक्षित घटना घटित होती है कि जिससे वह माता पिता से दूर रख दिया जाता है | होता यह है कि प्रतिहारी आकर राजा को खबर देता है कि 'राजवाटिका जाने का समय हुआ है।' अतः राजा सवारी -जलूस- के साथ बाहर जाने की तैयारी करता है। वह कहता है, 'आओ, युद्ध के योग्य अश्वों की परीक्षा के लिए आज हम घुडसवारी ही करें। इसलिए घोडे निकलवाओ, और कुमार से भी साथ आने को कहो।'
राजा की आज्ञानुसार शीघ्र तैयारी हो गई । कुमार को भी खबर दी गई । पढ़ा लिखा और जवानी को पहुँचा हुआ होते हुए भी कुमार माता के आशीर्वाद लेने जाता है, और माता को प्रणाम करके हकीकत कहता है। तब माता उसके सिर पर हाथ रख कर कहती है -
'वत्स ! जाओ, जैसे तुम्हारे बुद्धिमान् पिताजी फरमाएँ वैसे करो और सुखी बनो।'
इसमें पुत्र की लियाकत देखिये, और माता का विवेक देखिये । पुत्र ऐसी
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