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________________ है । ( ३ ) तदुपरान्त अवसर पर क्या बोलना, क्या देना, क्या करना, किस तरह अपने स्वभाव को मधूर एवं मृदुतामय बनाये रखना आदि में विशेष कुशलता प्राप्त की है। विरोधी को भी अप्रिय लगे ऐसा बोलना नहीं सीखा । सब कलाएँ इसने सीख लीं परन्तु (४) स्नेही या ( ५ ) शत्रु को पीठ दिखाना इसे नहीं आता ।" 44 यह सुन कर राजा खुशी से फूला नहीं समाता । कहता हैं, सुन्दर ! सुन्दर!” कहते हुए कुमार के अंग-प्रत्यंग की और देखता है। तो उन्हे भी सुगठित देख कर तृप्ति का अनुभव करता है । यहाँ देखने की खूबी यह है कि उपाध्याय ने आखिरकार विशेष जानकारी किस विषय में बतायी ? अन्य किसी कला विद्या में नहीं, बल्कि दाक्षिण्य, विनय, अवसरोचित बोल-चाल, मधुर स्वभाव, स्नेह की वफादारी, कैसे ही दुश्मन या संकट - आफत के सामने निडरता, वगैरह में कुशलता प्राप्त होने की बात कही और वह कुशलता याने उसका सिर्फ भाषण देने की नहीं, किंतु उसे जीवन में सुन्दर ढंग से परिणत करने की, अमल करने की कुशलता । नयी प्रजा के राग का निदान इस पर से ज्ञात होगा कि आज स्कूल कॉलेज, विश्व - विद्यालय आदि का विस्तार और बड़ी बड़ी डिग्रियाँ - उपाधियाँ बढ़ जाने के बावजूद अपराधी मानस में क्यों वृद्धि हो रही है ? आज विद्यार्थी-जगत क्यों उच्छृंखल - उद्दण्ड बनता जा रहा है ? क्यों उसके विरूद्ध बड़ी शिकायतें उठती है? कारण यही है कि विद्यार्थियों को दाक्षिण्य, विनय, सेवा अवसरोचित वाणी व व्यवहार, मधुर - मृदुस्वभाव, स्नेह की वफादारी, संकट में निर्भयता, आदि में पारंगत बनाने का मुख्य लक्ष्य ही नहीं है। इस दिशा में शिक्षण संस्करण का कोई प्रयत्न ही नहीं है । यही विशेषतः सिखाना चाहिए यह बात दृष्टि में है ही नहीं । इसके विपरीत शिक्षकगण सिनेमा- चित्रोंकी तथा बाहरी दुनिया की बीभत्स, विलासी उच्छृंखल बाते करके भोलेभाले विद्यार्थी के मन की अनुचित उत्तेजना को बढ़ाते है। दाक्षिण्यादि के स्थान पर अकार्य करने की रूचि, अनुचित बोलचाल और कठोर स्वभाव को गति देते है । फलतः 'फर्स्ट क्लास पास ' 'फोरेन रिटर्न्स' आदि के नाम पर स्वागत सम्मान होता है - फिर चाहे वह दाक्षिण्यादि से बिलकुल हाथ धो बैठा हो; इसमें क्या आश्चर्य ? Jain Education International ८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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