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ग्रहण किया है । कहने का तात्पर्य यह है कि कुमार को कला विद्या सीखने में कोई परिश्रम ही नहीं करना पड़ा, मानो बतायी और आ गयी, अर्थात् कला विद्याने कुमार को स्वयं वर लिया ।"
यह सुनकर राजा को बड़ा उत्साह आया । मन को हुआ - 'वाह ! कुमार की कितनी उच्च योग्यता है ।' वह बडे हर्ष के साथ कुमार को गोद में लेकर आलिंगन करता है । फिर पूछता है उपाध्याय से 'कुमार ने कौन कौनसी कलाएँ ग्रहण की ?'
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उपाध्याय ने कहा, 'देव ! सुनिये ! लेखन, गणित, व्याकरण, तर्क, नाट्य, गीत-वाजिंत्र, ज्योतिष, वेद, गन्धर्व, काव्य, स्वप्न शास्त्र, शकुनशास्त्र, अश्वविद्या, हस्तिविद्या, लक्षणशास्त्र, दंतकर्म, लेप्यकर्म, चित्रकर्म, धातु- रत्न- क्षारादि परीक्षा, व्यापार वगैरह - कितनी ही विद्याएँ कलाएँ गिनायी ।
कुमार ने बारह वर्ष में उतना सारा पढ़ लिया ? आपको ऐसा आश्चर्य होगा, परन्तु यह समझ में रखें कि पढाने की निश्चित प्रकार की पद्धति हो तो थोडे समय में बहुत बहुत पढ़ाया जा सकता है । और पढ़ना भी खूब दिल लगाकर तथा हर रोज के पक्के पुनरावर्तन के साथ हो तो अच्छे से अच्छा सीखा जा सकता है।
आज की शिक्षा प्रणाली की तो बात ही करने योग्य नहीं है । बंगाल के एक पंडित आये थे, कहते थे आज ज्यादह ज्यादह डिग्रीधरों को देख कर मालूम होता है कि
पंडित बढे है परन्तु पांडित्य घट गया है ।
काशी के पंडित कहते थे कि बड़ी बड़ी एम. ए. आदि की डिग्री धारण करनेवाले संस्कृत के प्रोफेसरों को वहाँ के प्राचीन पंडितों से पूछने आना पड़ता है, क्योंकि पंडितों का ज्ञान यानी ग्रन्थ के ग्रन्थ कंठस्थ ! मानो Living Library - जीवंत ज्ञान भंडार देख लीजिये । हमारी प्राचीन शिक्षण पद्धति ही ऐसी है कि विद्या मस्तिक में स्थिर हो जाय ।
जब कि अंग्रेजों की चलायी हुई नयी शाला - पद्धति में तो विद्या किताब में ही पड़ी रह जाती है, विद्यार्थी को उसका परिचय प्राप्त होता है परन्तु बोध खंड खंड बुद्धिमत्ता जैसा । कहते हैं ना 'Jack of All Master of None', सबका जानकार कहा जाय परन्तु एक का भी निष्णात नहीं। क्योंकि विद्या पुस्तकस्थ है पर, हृदयस्थ नहीं | आज के लड़के परीक्षा के बाद गर्मी की छुट्टियों के बाद
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