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________________ | मानव-काल धर्म-अभ्यास का काल है | मानवभव में यह सब लागू होनेवाला है । मानव-भव अर्थात् धर्मकलाधर्मविद्या के शिक्षण-संस्कार का सुदृढ अभ्यास कर के उसमें निपुण बनने का अवसर। जैसे बाल्यकाल-कुमार काल बीतने के बाद कला - विद्या का अध्ययन नहीं होता, वैसे ही मानवकाल (भव) बीत जाने के बाद गुणों का एवं धर्म का अभ्यास नहीं हो सकता | तो गुणों के और धर्म के उत्तम अभ्यास के बिना परभव के समय में जीवन कैसा नकम्मा और दोष-दृष्कृत्यों से पूर्ण बनेगा ? काल को पहचानना आवश्यक है । बालक को नादान मन से खाना-पीना-खेलना तो अच्छा लगता है परन्तु उसीमें समय बिताने के बाद बरबादी । उसी तरह हमें यहाँपर नादान बच्चे की तरह मकान-दुकान-कुटुम्ब, आरंभ-परिग्रह-विषय, खानपान-मौज अच्छे तो लगते हैं, परन्तु उसीमें अमूल्य मानवकाल बिता देने पर, खो डालने पर कितनी बरबादी ? अतः नादान मन की ओर मत देखो कि उसे क्या पसंद है । बालक को नापसंद राह पर भी गुरुजन चलावें वैसे वह चलता है उसी तरह हमें कठिन लगनेवाले धर्म-मार्ग पर भी ज्ञानीजन जैसे चलावें वैसे बरतना चाहिए | अन्यथा, बाद में हम 'धर्मेण हीनाः पशुमिः समानाः' धर्म-रहित मनुष्य पशुओं के समान हैं, इस तथ्य के उदाहरण (पात्र) बनेंगे। __यहाँ राजा को संदेह हो गया कि 'क्या कुमार ने कोई विद्या-कला ग्रहण नहीं की ?' उसे आघात लगा, तब उपाध्यान ने तुरन्त स्पष्टीकरण किया कलाग्रहण न करने का स्पष्टीकरण - “महाराज ! आप जराभी अफसोस न करें। आप समझते हैं वैसा नहीं है। किन्तु कुमार ने कला नहीं ग्रहण की उसका भेद आपके सामने खोलता हूँ | देखिये, इस जगत पर राज्य करने वाले प्रथम राजा-प्रजापति तो खुद ही धर्मअधर्म की व्यवस्था विभाजन करने वाले हुए | बाद में उन्होंने अपने भरतादि सौ पुत्रों को कला सिखायी। पुत्रों ने ग्रहण की । उन्होंने भी अपने पुत्र-पौत्रों को वे कलाएँ दी । इस तरह करने से परंपरा से कलासमूह राजाओं में उतरता आया। अब काल ऐसे ह्रास को प्राप्त हुआ है कि उस उत्तम कला-कलाप को ग्रहण करने और सम्हाल रखने में समर्थ कोई व्यक्ति इस भूमंडल पर नहीं रहा। फलतः बेचारी कला अशरण हो गयी । इत्तने में उसे यह कुमार मिल गया । अतः उसने स्वयं आकर कुमार का वरण किया । इसलिए मैने कहा कि 'कुमार ने कला ग्रहण करने का प्रयत्न ही नहीं किया । इसका अर्थ यह कि कलाने स्वयं आकर कुमार का ८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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