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जीवन में यह बहुत आवश्यक है कि हमारे आँख - कान बेकार और बाधक निमित्त स्वरूप दृश्यों और शब्दों पर न जायँ । _ विशेषतः बचपन में यह अत्यन्त आवश्यक है; जिससे बुरी आदतें पुष्ट न हों, अच्छा विकास हो, जिससे बाद में बड़े होने पर जागृत रहकर ऐसे व्यर्थ के या बिगाड़नेवाले निमित्तो और वातावरण की ओर आँख और कान न ले जाए ।
राजा दृढवर्मा ने देवी से वरदान माँगकर पाये हुए अपने एकमात्र पुत्र को विद्या और संस्कार देने के लिए यह योजना की है कि एक अलहदा अलिप्त मुकाम में उसे कलाचार्य के पास रखा है; जहाँ अपना या लडके की माता का या अन्य किसी सगे सम्बन्धी का सहवास ही न हो । मात्र होशियार कलाचार्य का ही संपर्क; जो उसे रसपूर्वक नई नई विद्याएँ तथा उत्तम संस्कार दिया ही करता है, दिया ही करता है । ऐसा कितने समय तक ? बारह वर्ष | ग्रंथकार कहते है - 'बारस वरसाई ठिओ अदीसमाणो गुरुयणेणं ।' गुरुजन देख न सकें इस तरह कुवलयचंद्र आठ वर्ष का बीस वर्ष तक पहुँचा तब तक शिक्षण पाता रहा । इस रीति से उसका विकास कितना व्यवस्थित और कला-विद्याओं में उसकी निष्णातता कैसी (अच्छी) हुई होगी ? ।
पुत्र का पिता के पास आगमन
बस, सब कलाओं और शास्त्रों में पारंगत होकर कुमार पिता के पास आया । बहुत स्नेह और उत्कंठापूर्ण हृदय से पिता के चरणों में प्रणाम करता है । राजा भी अनन्य स्नेह तथा चिरकाल के विरह से उद्भूत आँसुओं भरी आँखों के साथ उसके सिरपर हाथ फेर कर, साथ आये हुए उपाध्याय से पूछता है, “क्यों ? कुमार ने कला-समूह ग्रहण कर लिया ?"
उपाध्याय ने कहा, “देव ! नहीं ग्रहण किया ।"
यह सुनते ही राजा को वज्रका सा आघात लगा; उसने पूछा, 'क्यो नहीं?' उस संदेह हुआ कि, 'क्या कुमार ने उद्धत बर्ताव किया ? अथवा ठोठ (मूख) विद्यार्थी बना रहा ? बात क्या है ?' ये ना क्यों कहते है ? और यदि सचमुच ऐसा ही हुआ हो तो बारह वर्ष इस तरह व्यतीत करने का मतलब क्या निकला ? साथ ही कलाविद्या ग्रहण करने के अवसरपर वह नहीं किया तो अनवसर पर तो ग्रहण करने की बात ही क्या ? तो इसके बिना भावी जीवन कैसा निकम्मा ?
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