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एक भी ग़लत वातावरण न रखा जाय तभी उत्तम विद्या और उत्तम संस्करण मिलता है अन्यथा जीव के साथ अंनतानंत काल की ग़लत रुचियाँ और बुरी वासनाएँ तो लगी हुई चलीही आ रही है । अब यहाँ उस उच्च भव में उसके पोषक संयोग मिले तो यह सब गलत घटेगा? या उल्टा अच्छी तरह दृढ होगा? उदाहरण के तौर पर जीव को जगत का उल्टा-पुलटा, राख और धूल उपयोगी
और निरुपयोगी देखने-सुनने की रुचि तो है ही, अब यहाँ यदि यह सब यथेच्छ करते रहे तो यह आदत दृढ होती जाएगी या और कुछ ? छुटपन से ही इस तरह व्यर्थ इधर उधर नजर करता रहे, फुटकर अनाप शनाप चीजों में आँख मजबूत ही बनेंगी । बाद में बड़े होने पर वही सब बराबर अच्छी तरह चला करे उसमें क्या आश्चर्य ? इसीलिए तो यह शिकायत जारी है कि “हमारा चित्त स्थिर क्यों नहीं रहता ? क्यों आडे टेढे विचार आते हैं ? आँखे क्यों चाहे जहाँ दौड जाती है। बेकार की बात बोली जाती हो क्यों कान से वह पकडी - सुनी जाती है ।" छुट पन से ऐसी आदत पड़ी हो पोषी गयी हो तो ऐसा नहीं होगा तो और क्या होगा? और इससे अनादि से रसवाले जीव उस में मुँह डालेंगे ही । इसीलिए बचपन में ऐसे निमित्तों एवं वातावरण से दूर रहें तो ही जो कुछ भी अंट शंट उल्टा पुल्टा न देखा जाएगा न सुना जाएगा, और उससे गलत आदतों को पोषण नहीं मिलेगा, ग़लत संस्करण नहीं बढेगा ।
कहिये आप बालकों पर कहाँ यह ध्यान रखते है ? बालकों को चाहे जैसे विद्यार्थियों के स्कूल में छूटे छोड़ देते है न ? घर में भी पढ़ने बैटते है तो खुले चबुतरे जैसे हिस्से में। वहाँ वह अपने आँख-कान और चित्त को कितना इधर उधर भटकने देगा ? ऐसे निमित्त वातावरण में तो उसे बहुत बहुत बुरा मिलेगा फिर अच्छा निर्माण कहाँ से हो? पुराने बुरे रस और बुरे संस्कार घटेंगे किस तरह ? ___ और फिर आपको बडों को भी क्या है ? जितने अनावश्यक और बोधक निमित्तों एवं वातावरणमें आँख-कान डालेंगे उतना उसमें आत्मा बहेगा; उतनी मन की चंचलता चला करेगी, इसीलिए तो सामायिक घर में बैठ कर करने के बजाय उपाश्रय में करो, उसमें फर्क पडता है | घरमें तो आँख-कान के सामने कितना ही व्यर्थ का तथा बाधक वातावरण अर्थात दृश्य और शब्द आया ही करते हैं ? वहाँ चित्त उस में गये बिना कैसे रह सकता है ? और ऐसे चंचल चित्त से सुन्दर एकता के जाप - क्रिया - अध्ययन की साधना हो ही कैसे सकती
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