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प्रभु की विशिष्ट आंगी (अंगरचना) के दर्शन का लाभ मिल जाय किसी व्रतनियमादि धर्म का विशेष लाभ हो जाय - वगैरह वगैरह में उस पर बलिदान दिया जाय यह आवश्यक होते हुए भी नहीं किया जाता। फिर उसका शक्तिशाली शुभ प्रभाव किस तरह टिक सकता है ?
वैभव देखते हुए दृष्टि धर्म पर केन्द्रित
यहाँ राजकुमार कुवलयचंद्र का जन्म राजाने भव्य रीति से मनाया । फिर पाँच धायमाताएँ (धात्रियाँ) नियुक्त कर के उसका पालन पोषण किया जाता है। वह दूज के चाँद की तरह बढ़ रहा है । रानियों एवं सामंत राजाओं के हाथों खेलाया जाता है । आठ वर्ष की उम्र में अष्टमी के चन्द्र के समान बन कर अब वह लेखाचार्य - कलाचार्य को सोंपा जाता है । पुण्य का महान प्रभाव है कि पुत्र ने यहाँ जन्म लेकर तुरन्त कोई पराक्रम नहीं किया था तो भी उसे उच्च सम्मान मिलते हैं । इसीलिए ऐसे वैभव सम्मान की बात सुनकर मन में उन्हे पाने के अरमान नहीं बल्कि पुण्य के अरमान जागने चाहिए । मन को ऐसा हो कि मैं ऐसे उच्च कोटि के पुण्योपार्जन कैसे करूँ? ।' इस तरह फल के बदले कारण पर दृष्टि जाने से पुण्य के कारण स्वरूप धर्म पर दृष्टि केन्द्रित होती है । अतः जगत में इस तरह के वैभव सम्मान मुफ्त के रागादि द्वारा पाप की गठरियाँ न बांधी जायँ, धर्म बुद्धि बढ़े, धर्म के मनोरथ और योजनाएँ बनाई जायँ और उससे पुण्यका और पापक्षय का लाभ प्राप्त हो ।
कला-विद्या शीघ्र कैसे सीखी जाती है -
राजपुत्र आठ साल का होने पर राजा अब उसे कलाचार्य को सोंपता है परंतु किस प्रकार ? कलाएँ सीखने के लिए एक अलग जगह में स्वतंत्र मकान बनवा कर उसमें कुवलयचंद्र को कलाचार्य के साथ रखा जाता है। वहाँ किसी कुटुंबीजन का प्रवेश नहीं, उनसे मिलना मना जिससे कला-विद्या अच्छी तरह से शीघ्रता
और एकाग्रता के साथ सीख सके; उसी तरह इस संस्करण की उम्र में कोई गलत संस्कार प्रवेश न कर जायँ । बारह साल इस तरह चला। उस अवधि में माता पिता ने मोह को कैसे एक ओर रख दिया होगा? मोहमूढ सगे-स्नेही और नटखट उधमी बच्चें आदि का संसर्ग से दूर रखा होगा? विद्या और संस्कार उत्तम कोटि. के किस तरह प्राप्त किये जाते हैं ?
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