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प्रभु को माता के पास से मेरुपर्वत पर ले जाता है तब अकेला-अटूला नहीं बल्कि अपने पाँच रूप बना कर वज्र-छत्र-चमर उछालता हुआ ले कर चलता है । महान् वस्तु के साथ परिकर आवश्यक है जिससे उसकी महिमा हो ।
इससे सूचित होता है कि धर्म साधने का हमारा हिसाब, और विवेकी बनने की परंपरा ऐसी होनी चाहिए कि हम इस महान धर्म और धर्म के अंग की महत्ता को माननेवाले बने रहे, और यह परिकर खडा करने से होता है । प्रभु की पूजा पढाई तो उसके साथ दान होना चाहिए । बडे गुरु के पदार्पण का घर में लाभ मिला तो उसके पीछे सुकृत हो, सुन्दर तीर्थयात्रा कर के आये तो एक या दूसरे किसी सुकृत से उसका गौरव करना । पूर्व पुरुषों की ओर देखिये । महात्माओं के आगमन के शुभ समाचार मिलने पर दान करते थे न !
रानी सुन्दर स्वप्नदर्शन के बाद धर्मध्यान करके रात बिताती है। सुबह उठ कर, राजा के पास जा, प्रणाम कर के आनन्द के समाचार देती है - देव ! आज रात को आपकी कृपा से मैंने एक सुन्दर सपना देखा है ।" ऐसा कह कर स्वप्न का विवरण करती है | बड़े के सामने अच्छी बात का निवेदन करना चाहिए । राजा अत्यंत हर्षित हो जाता है, क्योंकि (१) रानी की इच्छा पूर्ण होना (२) खुद का वरदान प्राप्त करने का भारी पराक्रम सफल होना और (३) अपने लिए योग्य उत्तराधिकारी (वारिस) मिलना उसमें उसे दिखाई देता है ।
अच्छा गुण या धर्म पाने का आनन्द कब होता है ? । ___ आत्मा में कोई भी गुण या धर्म प्राप्त करने का ऐसा आनन्द होना चाहिए । यह तभी संभव है जब पाप का, पाप-सामग्री का आनंद घटे, अन्यथा जो वह खूब भरा हुआ हो तो गुण या धर्म पाने के आनन्द के लिए स्थान ही कहां रहे ?
बुरी वस्तु का आनन्द मन्द पड़ जाए तो उत्तम वस्तु का आनंद उछलने लगे।
जीवनभर नौकरी करनेवाले को अगर नौकरी में आनन्द नहीं हो तो उसे धनिकता में दिलचस्पी होती है | मोक्ष और धर्म की भी ऐसी ही बात है। संसार का आनंद उड जाय तो मोक्ष का रस जगे । आरंभ-समारंभादि पाप अप्रिय लगें तो सामायिक का सच्चा रस पैदा हो ।
रानी के स्वप्न-कथन पर खुश होकर राजा कहता है 'वाह ! तुमने सुन्दर सपना देखा है। यह सूचित करता है कि तुम एक महान पुत्र को जन्म दोगी ।"
रानी राजा के बोल को बहुमूल्य मानकर झेल लेती है । वह कहती है - "स्वामिन् ! आपने कहा है वैसा ही हो। मुझे यह बहुत अच्छा लगा | मैंने उसे
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