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________________ स्वीकार कर लिया। मैं उसका सहर्ष स्वागत करती हूँ। आपने मुझपर बड़ी कृपा की ।' ऐसा कहकर वह राजा के पैरों पड़ती है । बड़ों के वचनों का आदर करना चाहिए । यह उनकी महिमा और स्वीकार प्रकट करने से होता है। मानव जीवन में ही यह बन सकता है, बनाना ही चाहिए। पशु के अवतार में यह कहाँ संभव है ! प्रशंसा करें, स्वीकार करें, ओर मेहरबानी की' ऐसा कह कर पैरों पड़े । गुरुजन ने हित- शिक्षा दी हो उसका इस प्रकार आदर किया जाता है सही? या कुछ नहीं, यह ( ordinery) साधारण है ऐसा कहकर चुप रह जाते है । या बस 'ठीक' इतना कहकर निपटा दिया. जाता है । धर्म जैसी श्रेष्ठ वस्तु गौरव किये बिना वह धर्म हमारा सगा किस तरह बनेगा ? कौन आदर करने नहीं देता ? पापी दुनियादारी का रस धर्म का आदर नहीं करने देता - अच्छा मेहमान आवे तो उसका बहुमान करना पड़ता है । तो अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई हो उसका सम्मान नहीं करना ? मेहरबानी नहीं मानना ? गुरुजन के इस उपकार के लिए चरण नहीं छूना ? निरी पापी दुनियादारी का रस हृदय में लबालब भरा हो उस के ये लक्षण हैं कि हित- शिक्षा, अच्छी सलाह, तथा अच्छे मार्ग प्रदान का ऐसा आदर नहीं किया जाता, गौरव नहीं स्वागत नहीं, मेहरबानी नहीं मानना, और पैरों पड़ कर कृतज्ञता व्यक्त करने की बात नहीं। तो फिर पशु जीवन से इसमें विशेषता क्या है ?- व्याख्यान तो बढ़िया सुने, पर बाद उसका आदर, गौरव, मूल्यांकन और कृतज्ञता कौनसी की ? क्या गुरु के चरणों में गिरकर कहा सही कि 'आपने बहुत उपकार किया ? कितना अमूल्य बोध दिया ?' क्यों नहीं होता यह सब ? तो कहो कि हिये में केवल पापी दुनियादारी का रस भरा पड़ा है | तब अकेली पापी दुनियादारी का ही रस हिये में भरा रख कर यहाँ से मरने के बाद परलोक में कैसे अवतार में जाना निश्चित किया है ? अपने पूर्वजोंकी कौनसी सुन्दर विरासत हमने ग्रहण की ? जीवन में कौनसी उतारी ? यह सब सोचने योग्य है ! चरित्र ग्रन्थ भी हमें ऐसा सब बहुत बहुत सिखाते हैं । इनमें से केवल हिसाब निकालना चाहिए - निकालने की गरज़ होनी चाहिए | इतने सुन्दर स्वप्न आने से राजा अब देखो, उनका कैसा आदर करता है ? उसने देवों की पूजा की, पूज्यों की भक्ति की । स्नेही जनों का सम्मान किया । Jain Education International ७२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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