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________________ है ?' उन्हे पता नहीं है कि सौगंद- प्रतिज्ञा का यह काम है कि सत्त्व विकसाना है । भीतरी जोश उछलता है तब प्रतिज्ञा ली जाती है, और पालते वक्त भी अन्तर्मन कहता है कि प्रतिज्ञा माने प्रतिज्ञा; मेरे उसको दृढता से पकड़ना ही रहा । कैसे भी प्रलोभन आये अथवा स्नेहीजनों का दबाव आवे तब प्रतिज्ञा के हिसाब से ही टिकना संभव होता है । तात्पर्य यह कि इस जीवन में पाप छोड़ना और धर्म जोडना यह तो आवश्यक है ही किंतु सत्त्व को विकसाते जाना भी बहुत आवश्यक है, और वह प्रतिज्ञाओं से सरल सुलभ बनता है। सत्त्व के ही अधिकाधक विकास के बल पर गुणस्थानक की सीढ़ी पर ऊपर से ऊपर चढा जाता है । यावत अपूर्व करण तथा क्षपकश्रेणी प्रारंभ की जाती है । जिसके द्वारा वीतराग सर्वज्ञ बना जाता है । देवी का प्रकट होना ... राजा दृढवर्मा सत्त्व के साथ अपनी प्रतिज्ञा के पालन में दृढ है । तीन रातें बीतने पर देवी के दर्शन नहीं हुए. तो अब तलवार निकाल उसे अपने गले पर फेरने को तत्पर हो गया । देवी को संबोधित कर कहता है - ले, अब मैं अपना यह मस्तक तुझे अर्पित कर देता हूँ ।' ऐसा कहते ही वह ज्यों ही झटका लगाने जाता है त्यों ही देवी प्रकट होकर उसका हाथ रोक लेती है । राजाने तत्क्षण प्रणाम किया । ७. राजा और देवी का मधुर संवाद देवी कहती है " क्यों, क्या बात है ? इतना सारा साहस किसलिए ? बड़े युद्धों में विजय पानेवाला यह खड़ग रत्न तेरे कोमल कंठ पर चलाने की ज़रुरत क्यों हुई ।' राजा उत्तर में कहता है- 'देवी ! कारण यही कि तीन दिन और तीन रात तुम्हारे दर्शनों के लिए बिना खाये पीये बैठने पर भी मुझे तुम दर्शन नहीं देती।' देवी ने कहा - ओहो ! महाराज दृढवर्मा ! तीन रात का तू तपस्वी इतने में असहिष्णु बन गया ?' राजाने कहा - भोजन न मिलने की असहिष्णुता नहीं है, परन्तुं स्वाभिमान ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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