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रूपी धन जिसके पास हो उसे एक तिनके जितना पराभव भी हो तो वह विराट मेरु जितना पराभव मालूम होता है।" ।
देवी ने नर्म पड़ कर कहा 'कहो, - क्या काम है ? राजा माँग करता है कि “सर्व कला एवं ज्ञान का भंडार, राज्यधुरा का वहन करने में समर्थ और कुल में सूर्य समान तेजस्वी एक सुन्दर पुत्र मुझे दो।"
अब देखो ! देवी कैसा हल्का-फुल्का मजाक करती है । वह कहती है तो क्या तुमने मुझे पुत्र सौंप रखा है कि जिस कारण तुम मुझसे यों पुत्र मांगते हो ?
"नहीं, सौंपा नहीं है - तुम्हारा अपना ही दो । देवी कहती है - मेरे भला पुत्र कहाँ है ?'
राजा हल्की सी मुसकान के साथ कहता है- “वाह ! जिसने भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, माधव, नल, आदि पुत्र तैयार किये ऐसी तुम तुम्हारे पास एकभी पुत्र नहीं ?'
देवी बोली - हँसने की बात रहने दो | जाओ ! तुम्हारे एक पुत्र हो !' यह कर देवी ओझल हो गई।
राजा की कार्य सिद्धि हो गयी, इसलिए वहाँ से जाकर स्नानादि कर के देवपूजा, गुरुजनों को नमस्कार, स्नेही जनों से प्रेमालाप, आश्रितों को स्नेहवचन, तथा दानादि करके मंत्रीगण को बुला कर जो घटना घटी थी सो कह सुनाई। __कार्य सिद्ध हो जाने पर यह सब औचित्य है । फिर वहाँ यह विचार नहीं आता कि - 'पराक्रम तो मैंने किया उसमें और सब को नमस्कार करने बुलाने या दानसत्कार करने का क्या काम है ? ऐसा विचार क्यों नहीं। तो कहो - इसीलिए कि उसे इतनी समझ है कि -
(१) कार्य की सिद्धी होने में देवतादि बड़ों का प्रभाव और आशीर्वाद महान कारणभूत है, अतः कृतज्ञता के तौर पर उनका औचित्य करना ही चाहिए ।
(२) कार्य सिद्ध होने का आनन्द और उसके फायदे इतने अधिक ऊँचे हैं कि (i) उन के सामने अभिमान या धनप्रेम पंगु हो जाते हैं, फलतः नमस्कार-पूजा विनय और दान अनायास ही बन पड़ते हैं साथही (ii) उस आनंद में दूसरे को हिस्सेदार बनाने की इच्छा होती है।
जीव में ये दो महान तत्व बहुत आवश्यक हैं, (१) गुरूजनों तथा उपकारियों के उपकार का मूल्यांकन करने के साथ साथ उनका योग्य स्वागत-सम्मान, तथा (२) प्राप्त हुए या होनेवाले मूल्यवान् लाभ को ऐसा महत्व देना कि उसकी तुलना में आरामतलबी, अभिमान या लक्ष्मी तुच्छ मालूम हो, उचित दान में संकोच न
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