SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्वाल-पुत्र का सत्त्वोल्लास - शालिभद्र के जीव, ग्वाले के पुत्र ने जीवन में पहली बार पाई हुई बहुत मन भावन खीर खा लेने का लोभ संवरण करने का सत्त्व उत्पन्न किया तो महातपस्वी के पात्र में सारी उँडेल देने का महान सुकृत उल्लास के साथ कर लिया। सत्त्व न पनपाया होता तो मन को मना लेता, "भाई ! महाराज जाते है, उन्हें जाने दो । हमारी कहाँ पहुँच है कि दान दे सके ।' तब क्या वह दान दे सका होता ? उसमें भी कही माँ ने आकर हुक्म दिया होता कि 'क्या खाने बैठ गया है ? दे दे महाराज को, मै तुझे और दे दूंगी' तो शायद देता भी, परन्तु तब क्या वह सत्त्व पूर्वक देता ? अथवा रोते हुए मन से? मन में तो होता 'दे भाई दे महाराज को, माँ कहती है इसलिए दिये बिना नहीं चलेगा; पर कोई चिंता नहीं, माता और खीर अपने देनेवाली है।' यह क्या है - खाने का सत्त्व या देने का ? सत्त्व के बिना सुकृत का उल्लास नहीं, सुकृत में कोई माल नहीं - __मुर्दार - मृतवत सुकृत और ज्वलंत धनसंचय - खानपानादि - निःसत्त्व की विशेषता है - सात्विक की विशेषता ज्वलन्त सुकृत और सत्त्वहीन धनसंचय - खानपानादि में है। जाँच करना, जीव का सत्त्व क्या प्राणों में धडकता रहता है ? धनमाल कमाना, संगृहीत करना, और मनमाने खानपानादि एवं भोग-विलास करना - यह तो अनार्य म्लेच्छ तथा भंगीचमार भी करते है क्या उसमें सत्त्व है ? इनमें पडे हुए वे लोग क्या दान-परोपकार, सत्य-नीती विश्वास-पालन आदि कर सकते है? तो वे दानादि के विपरीत चलकर क्या लोक विख्यात, सुखी और सद्गतिगामी बन सकते है ? नहीं, वह तो सत्त्व के साथ सुकृत के आचरण से ही संभव है । अतः सुकृतों का सेवन ही जीवन कर्तव्य कहलाता है । यह उत्तम सत्त्व होना आवश्यक है। प्रतिज्ञा पालन अलोकिक सुकृत है - इसमें प्रकट किया गया सत्त्व अमर बन कर उसके ऐसे सुन्दर संस्कार उत्पन्न करता है कि जिससे उत्तरोत्तर नये नये सुकृतों का उत्साह प्रकट होता है । प्रतिज्ञा लेने में भी सत्त्व विकसित होता है और पालने में भी सत्त्व विकसित होता है | कई लोग कहते है न कि ‘ऐसे ही ऐसी पाल लेंगे - सौगंध - प्रतिज्ञा का क्या काम ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy