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होने के कारण राजा का मुँह भयंकर रोष में चढ़ गया । उसने तुरन्त तीक्ष्ण खड्ग हाथ में लिया और कहने लगा - __'देवी ! तु स्वर्गमें, पाताल में या क्षीर समुद्र के कमलवन में - जहाँ कही हो, अब तलवार की धार से मैं अपना यह सिर काट कर तुझे समर्पित करता हूँ । उसे तू स्वीकार कर लेना ।'
बस, इतना कह कर वह अपनी गर्दन पर तलवार का वार करने के लिए हाथ उठाता है । सात्विक पुरूष है । अतः जो प्रतिज्ञा की है उससे मुँह मोडने को तैयार नहीं है । प्रतिज्ञा के अनुसार - देवी के दर्शन नहीं हुए तो अपना मस्तक काट कर देवी के चरणों में चढाने को तैयार हो गया है ।
| सत्त्व का महामूल्य |
मर कर सुख-सुकृत छोडने को तत्पर क्यों ?
प्र० देवी के दर्शन मात्र के लिए इतना सब ? ऐसे सिर काट कर मर जाने के बजाय जिन्दा रहे तो कितने ही सुख-विलास कर सके और कितने ही सुकृत भी कर सकता है न ?
उ० बात सही है, परन्तु सात्त्विक मानवों के मन में अपने वचन की - प्रतिज्ञा की - संकल्प की महत्ता होती है । वचन सो वचन, प्रतिज्ञा सो प्रतिज्ञा | उसका पालन करनेमें सारे सुखभोग, सारे सुकृत है । और तो संसार के सुखभोग किस कामके ? क्षण जीवी, पराधीन वियोग से दुःख में परिणत होनेवाले और अमूल्य सुकृत क्षणों को नष्ट करनेवाले - इतना ही न या और कुछ ? उनके पीछे क्या स्वाधीन, सुखद तथा सुसंस्कार से अमर बननेवाले सुकृतों को जाने दिया जाय ? तात्पर्य - पवित्र वचनबद्धता जैसे महान सुकृत के परिणाममें तो आत्मा को ऐसे अलौकिक सत्त्व की प्राप्ति होती है, जो भवांतर में भी अनेकानेक सुकृतों को जन्म दे।
सच्चे सुकृत सत्त्वमें से जन्म लेते है
सत्त्व हो तो सुकृत की हिम्मत रहती है, उल्लास रहता है । सत्त्व के नाश से सुकृत-शक्ति, सुकृत-उल्लास, नष्ट होते हैं। सत्त्व के बिना किये गये सकत भी मुर्दार जैसे बनेंगे।
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