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उलटी योजना करता गया कि ऊपर से जो था सो भी खो दिया। अब बिल्कुल दरिद्र निराश, हताश कर्जदार होने के बाद एक संत के पास गया और बडे दुःख के साथ अपना रोना रोने बैठा - गिडगिडाकर कहने लगा, "महाराज कोई मंतर जंतर बताइये जिससे (मेरी उन्नति हो) मैं उपर उठू ।'
साधु संत के पास कब जाना ? और किस तरह जाना ?
सब सुष्ठु चलता हो तब नहीं, यही न ? क्योकि इसमें मानो कि कुछ सुकृतशक्तियाँ उपस्थित हैं और संत कोई सुकृत करने का संकेत करेंगे तो ? यह डर है। जिसे सुकृत का डर हो उसे भला दृष्कृत का डर रहता है ? आप कहेंगे - डर सुकृत का नहीं बल्कि पैसे खर्च हो जाने का है, या शरीर आदि से यथेच्छ मौज करने से वंचित होने का डर है; तो इस से डर डर कर साधु संत के पास नहीं गये, कोई सत्कार्य नहीं किये तो क्या इससे कंचन - काया और मौज-मजा शाश्वत बने रहेंगे ? या पुण्य द्वारा दिये गये पुरस्कार एक दिन खत्म हो जाने पर पुण्य से बैर करके उसे (पुण्य को) पुष्ट न करने के भयंकर अपराध की सजा का शिकार होना पडेगा !
संत के पास कब जाना ? बरबाद होने के बाद ? जो नष्ट होने के बाद जाता है वह भी किसलिए जाता है ? वही पहले के सांसारिक विलास के मजे फिर मिले इसलिए न ? तो इस तरह वह उस संत के पास अच्छा क्या लाएगा ? संत तो आत्मा का कुछ सुधरे ऐसा करने और कहने के लिए बैठे हैं, जब कि इसे तो जड माया का भला हो यह चाहिए, तब किस तरह मेल खाएगा ? __ अतः सचमुच तो अच्छी स्थिति में तो पहले संत के पास जाना चाहिए, और संत के पास जाना सो भी इसलिए कि अपनी आत्मा का कुछ हित हो, न कि जड माया की उन्नति के लिए बोलबाला के लिए; इस उन्नति - बोलबाला से क्या हाथ आनेवाला है ? जड़ के पीछे पागल होकर तो अनन्त काल भटकते रहे ।
वह दरिद्र बेकार हताश-निराश होकर संत से मिला - गिडगिडाने लगा, मेरे पास कुछ नहीं बचा । मै दुःखी हूँ, कुछ जंतर मंतर बताएँ तो आपका उपकार मानूँगा ।' (कृतज्ञ रहूँगा)
बनावटी संत क्या करते है ? ऐसा ही कुछ गंडा-ताबीज, जंतर मंतर, बाजार के भाव-ताव का रूख, मुहूर्त-ज्योतिष वगैरह ! आज कितने ही बेचारे इसमें फंसकर बरबाद हो गये | धर्म से तो गये ही साथ ही धन से भी खत्म हो गये। ऐसे बनावटी संत अच्छे लगते हैं, तब अच्छे संत कहाँ से अच्छे लगे ? सच्चे अच्छे संत नहीं सुहाते तो धर्म कहाँ से मिले ? कैसे धर्म में आगे बढ़े ? और
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