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________________ अपनी सुशिक्षित और कसी हुी आत्मा, शील-धर्म की साधना में महाशीलवान् महापुरुषों के चित्र, उपयुक्त वेश-परिधान, तदुपरान्त इन सब में उत्तम प्रेरक पठन, श्रेष्ठ संसर्ग - सत्संग वगैरह 'द्रव्य 'कहलाता है। __ क्षेत्र, से तात्पर्य साधना के आसपास की जगह; वह अनुकूल होनी चाहिए , अर्थात् ऐसी जो पवित्र प्रेरणा दे, और जिसमें जीवोंकी शांतिवाला वातावरण हो, जिस से कोमल शांत वातावरण में उसके अणु मन को प्रफुल्लित करें । जीवों के त्रासपूर्ण आर्तनाद जारी हों तो क्षेत्र का वातावरण क्षुब्ध रहता है; दुःख की हाय, निश्वास एवं शोक आदि से ग्लानिपूर्ण रहता है, ऐसे क्षेत्र में विवेकी व्यक्ति में उत्तम उल्लास, उत्साह, उमंग कैसे जगे, कैसे टिके और बढ़े? अतः क्षेत्र भी ऐसे वातावरण से मुक्त चाहिए । 'काल' भी अनुकूल होना चाहिए । अर्थात् शुभ शकुन-शब्द - मुहूर्तयुक्त एवं प्रसंग को उद्दिप्त करे ऐसा होना चाहिए। _ 'भाव' से मतलब है अपने चित्त के भाव सुस्ती (आलस्य) नहीं पर उत्साह से भरे हुए, सन्तप्त नहीं पर सौम्य और निराशापूर्ण नहीं बल्कि आशाभरे होने चाहिए। ऐसा क्यों ? कहते हैं न कि 'रोता हुआ जावे सो मरे की खबर लावे ।' कार्य क्यों बिगड़ता है ? सामान्यतया मनुष्य को वस्तु का काला पहलू देखने और रोना रोने की तथा बिगडे हुए खोये-हुए अंशो की ओर ही ध्यान देने की आदत होती है। ऐसी हालत में यथा संभव अच्छा करने का उल्लास ही कहाँ से उठे ? हाँ, अगर वस्तु का उजला पहलू देखे, खोये हुए की अपेक्षा हाथ में कितना बचा है और उस का क्या सदुपयोग हो सकता है सो देखे, अब कितना अच्छा उत्पन्न किया जा सकता है उस ओर नजर रखे तो उत्साह-उल्लास-उमंग उठे, टिके और योग्य पुरुषार्थ चालू रहे । तब पूछिये, प्र० सब तरह बरबाद हो गया हो वह उत्साह किस प्रकार रख सकता है? उ० इस प्रकार रख सकता है - पहले तो यह देखना कि कहीं कुछ बचा है या नहीं ? यह भी देखना आना चाहिए। हमारे पास क्या है ? एक दृष्टांत :__ एक आदमी की अवनति होती गई । फिर तो निराशा निःश्वास में सब ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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