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यह अचल श्रद्धा हिये में उछला करे तो आपत्ति की क्या मजाल कि वह ठहर सके ? सम्पत्ति कैसे खिंच कर न आए।
उन मंत्रियों ने राजा दृढवर्मा को यह परामर्श दिया कि “अन्य देवी-देवता की आराधना की क्या आवश्यकता है ? जिस राज्यलक्ष्मी ने आपके पूर्वजों का सर्जन - पालन पोषण किया है वे क्या आप के वारिस ( उत्तराधिकारी) का सर्जन नहीं कर देंगी ? बस, उन्हीं की आराधना कीजिये । "
राजा ने यह सलाह तुरन्त स्वीकार कर ली । अब देखें वह कैसी पद्धति से आराधना करने जाता है और किस सीमा तक आराधना करता है ?
६. आराधना - विधि
अब राजा को कुलदेवी राज्यश्री की आराधना करने बैठना है, अतः उसने पूर्व-विधि में यक्ष, राक्षसादि को बलिदान दिये । पश्चात् याचक - दीन - अनाथ दुःखियों को भरपूर दान देकर उनके मनोरथ पूर्ण किये । अपने नौकर चाकर आदि परिवार को सन्तोषकारक उपहार दिये । फिर स्नान कर के शुद्ध श्वेत वस्त्र परिधान कर पुष्पमालादि पूजापे का सारा सामान लेकर पूर्व दिशामें शकुन देख कर देवगृह में प्रवेश किया। प्रवेश करके देव-देवी को पुष्प अर्पण करता है और देवी के आगे रत्न के फर्श वाली भूमि पर फूल बिछाता बनाता है ।
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आप भी प्रभु की पुष्प-पूजा, वर्क पूजा करते हैं न ? लेकिन क्या प्रभु आगे इस तरह भूमि को भी सजाते हो सही ? नहीं, उसमें तो आपको लगता है कि 'प्रभु के अंग पर फूल चढ़े सो तो पूजा हुई कहलाती है पर, जमीन पर रखे सो तो व्यर्थ गये ! कैसी अज्ञान-दशा !
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'पूजा' माने क्या ? यह समझते हैं आप ? प्रभु के चिपका देना यही पूजा ? अच्छा मेहमान, यह समझिये कि साल में हजारों रुपयों का फायदा कराने वाला सेठ आप के घर आया हो तो उस की भक्ति (स्वागत) में क्या क्या करेंगे ? केवल उसके पेट में डाला जाय उतना ही करेंगे? उसे परोसा और उसने उसमें से थोड़ा ही खाया, बाकी छोड़ दिया तो छूटा हुआ बेकार गया इस तरह अपना दिल जलाएँगे ? या सेठ के इन प्रशंसा के शब्दों पर नाच उठेंगे कि “वाह!
एक गालीचा सा
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