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________________ कुसंग छोड़ दे, व्यसनों को छोड़ दे. धर्म कर' । पर मैं मानता नहीं था। तो मैं मूर्ख अपने पिता की मृत्यु के बाद कुसंगत और व्यसनों में पिता की सारी पूँजी बरबाद कर बैठा, दरिद्र, निर्धन हो गया। तब मेरे वे संगी-साथी - कुमित्र मुझे कहाँ आश्रय देने आये ? कौन से व्यसन ने मुझे बचाया ? और यहाँ ऐसे प्राणलेवा संकट में कौन मेरी रक्षा करने आया ? मैं तो मर गया होता इस जोगी के माया जाल में ! जिदा कट कर जल गया होता। भला हो मेरे उन कल्याण पिता का कि उन्होंने मुझे आखिर में संकट के समय नमस्कार-मंत्र गिनने और अरिहंत परमात्मा में श्रद्धा रखने की शिक्षा दी ! तभी तो उस के सहारे मैं इस जानलेवा कष्ट में से उबर सका। और दरिद्रता हटी हटी तो ऐसी हटी कि बैठे - बैठे हर रोज सुवर्ण-अंग देनेवाला सुवर्ण-पुरूष प्राप्त हुआ । वाह मेरे पिता! वाह मेरे अरिहंत । धन्य है ! नाथ ! आपका कितना उपकार मानूँ ? प्रभु ! तू ही मेरी सच्ची शरण है, सच्चा तारणहार है, सच्चा सुखदाता है ।' __अरिहंत देवपर ऐसी अचल-अनन्य श्रद्धा और उनके अचिंत्य, अमाप प्रभाव पर अमोघ श्रद्धा क्या काम नहीं करती ? इस जीवन में भी कल्पनातीत, चमत्कारी आपत्ति-निवारण और सम्पत्ति सम्पादन कैसे न सिद्ध करा दे ? तब पूछिये न : प्र० पर इसमें तो अपना पापोदय हटने वाला हो और पुण्योदय जानेवाला हो तो ऐसा बन आवे, उसमें अरिहंत का क्या प्रभाव ? उ० अरिहंत का प्रभाव यही कि उनका अतिशय श्रद्धापूर्वक आलंबन लो तो वह अनिकाचित पाप कर्मों को तोड़ डाले और सुस्त पड़े हुए पुण्य को जगा कर उसे उदय में ले आवे | तब निकाचित कर्म चाहें न भी टूटे परन्तु नये पाप कराने की उनकी अनुबन्ध शक्ति तो नष्ट हो ही जाती है । तत्पश्चात वे उदय में आकर अशुभ या शुभ फल दिखा जाएँगे, इतना ही, लेकिन कोई नये पाप करने की दुर्बुद्धि नहीं जगाते, नये सिरे से पापकर्मों का बन्ध नहीं कराते । सारांश, इस लोक एवं पर लोक की आपत्तियाँ मिटाने की तथा संपत्तियाँ खड़ी करने की अमोघ एवं अनन्य शक्ति अरिहंत प्रभु में है, इसलिए इस तत्व पर अनन्य श्रद्धा चाहिए। मन रात-दिन रटता रहे - 'मेरा भला हो और बुरा हटे सो मेरे अरिहंत के द्वारा ही | बस, मेरे तो मन एक अरिहंत ! प्रभु! मुझे तुम से काम औरों से नहीं' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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