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________________ [अरिहंत के प्रभाव से यहाँ (इह लोक में) आपत्ति दूर होने के उदाहरणः-1 श्रीमती पर नाराज़ पति ने अंधेरे में घडे में साँप रखा छोड़ा था। वह उससे कहता है - 'उस घडे में से फूलों की माला लाना ।' श्रीमती अपनी श्रद्धानुसार अरिहंत देव का स्मरण कर घड़े में हाथ डालती है और सचमुच साँप के बदले फूलों की माला ही उसके हाथ में आती है । निर्धन दरिद्र बना हुआ शिवकुमार धन के लोभ से जोगी के जाल में फँसा। उसे सुवर्णपुरुष साधना है, अतः इस शिवकुमार की बलि ले कर सुवर्णपुरुष बनाने के लिए इसे उत्तरसाधक बनाया । अब जोगी के जाप करते करते अग्निकुंड के पास तलवार के साथ रखा हुआ शव शिवकुमार पर वार करने के लिए उठ के बैठने लगता दिखाई देता है । तब शिवकुमार भड़का । उसने तो तुरन्त अपने पिताकी सलाह के अनुसार नवकार मंत्र पंचपरमेष्ठि नमस्कार - अरिहंत का स्मरण खूब श्रद्धा के साथ करना प्रारंभ किया। बस, शव उठते उठते नीचे गिर गया । जोगी चौंककर पूछता है- 'क्यों रे ! तू कोई मंत्र पढ़ रहा है ? यह क्यों दूसरा कुछ कहे ? कहता है - 'भाई साहब। मै कहाँ से मंत्र जानू ? जोगीने पुनः जाप शुरू किया। फिर शव उठने लगता है, लेकिन शिवकुमार के नवकार-अरिहंत पर श्रद्धा युक्त ध्यान के कारण शव फिर गिर पड़ा। अतः फिर जोगी उसे जोर से धमकाता है परन्तु उसकी दीन दिखावट और दीनवाणी जोगी को शान्त कर के तीसरी बार जाप में चढ़ा देती है । बस, अब की बार तो ज्यों ही शव उठने लगा त्यों ही शिवकुमार अधिक अटल अरिहंत श्रद्धा से स्मरण करने लगा, (अटल श्रद्धा से अरिहंत-स्मरण करने लगा) जिससे शव ने उठ कर शिवकुमार के बदले जोगी को उठा कर आग में पटक दिया, जोगी का संहार कर डाला और जोगी का शव अग्नि में पड़ने से सुवर्ण-पुरुष हो गया । सुवर्ण-पुरूष से तात्पर्य सुवर्ण मूर्ति । हररोज उसमें से सुवर्णमय अंग काट लो और दूसरे दिन अखंड सुवर्ण-मूर्ति तैयार। दरिद्रनारायण शिवकुमार को यह देख कर हर्ष का पार तो क्या वरन् अरिहंत प्रभु पर श्रद्धा का भी पार न रहा । आँखे डबडबा आयी, उसके मन को हुआ कि | शिवकुमार का पश्चात्ताप :- | 'अरे रे ! मैं कितना बड़ा बेवकूफ हूँ कि लोफरों - बदमाशों की संगत में पड़ कर व्यसनी बन गया, धर्म भूल बैठा। मेरे पिताजी मुझे बहुत समझाते कि 'यह प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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