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अचल-अटल विश्वास चाहिए। अगर यह हो तो मन को कैसे ऐसा न लगे कि 'आपत्ति उनके प्रभाव से ही दूर होगी, अतः उनका ही ध्यान-उपासना करूँ। अर्थात दूसरी तीसरी चिंता और उधेड़बुन में पड़ने के बदले उन्हीं को ध्यान में - स्मरण में स्थापित करूँ, उन्हीं की उपासना करूँ ।
यह श्रद्धा किन के ऊपर हुई ? ध्यान और उपासना पर? या कि अरिहंत प्रभु पर ?
ध्यान - उपासना में फोर्स - जोश कैसे आए ?
राह न भूलना अन्यथा ध्यान-उपासना में फोर्स - ज़ोर नहीं आएगा । सच्चे उपकारी के प्रति उनकी शक्ति और उनका उपकार स्वीकार करने की कृतज्ञता नहीं हो तो बुनियादी गुण - कृतज्ञताका अभाव होने से उपर्युक्त साधना में बल कहाँ से आएगा? ध्यान - स्मरण - उपासना में यह भाव होना चाहिए कि 'प्रभु ! तू ही तारणहार है, तेरे प्रभाव से अनंते पार हुए हैं, अनंते सुखी हुए हैं, तो मुझे भी तेरा ही आधार है । तू ही मेरे लिए शरण है, त्राण है, प्राण है, तू ही सुख कर्ता, हितकारी और दुःख निवारक अहितनिवारक है ।' केवल उनके मार्ग पर ही नहीं बल्कि उनके खुद के प्रति भी यह श्रद्धा होनी चाहिए तो ही उनके उपकार को जाना है ऐसा माना जाय, मन में कृतज्ञ-भाव लाया माना जाय । उसे लाने से ध्यान - स्मरण - आराधना में फोर्स आता है, वेग, बल, जोश आता है, और उससे इस लोक - पर लोक की महान आपत्ति भी दूर होकर महासम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं।
प्र० परलोक का तो बन जाय परन्तु इस लोक का क्यों कर बने ?
उ० क्यों न बने ? जिनमें परलोक की महान् आपत्ति निवारने और महासंपत्ति संपादन करने का प्रभाव है, क्या उनमें इस जीवन की मामूली (साधारण) आपत्ति दूर कर मामूली संपत्ति खड़ी करने का प्रभाव नहीं होगा ? न होने का मानना अश्रद्धा है और यह अश्रद्धा पर लोक के सम्बन्ध में भी विघ्न बनेगी । वहाँ भी ऐसी जोरदार श्रद्धा नहीं होने देगी कि 'प्रभु ! तेरे ही प्रभाव से भवांतर में सद्गति और सुविधाएँ मिलेगी।' यहाँ के लिए भी यह श्रद्धा पहले आवश्यक है कि - 'मेरे अरिहंत देव तो जब परलोकोपयोगी महापापक्षय तथा महापुण्योपार्जन करानेवाला प्रभाव रखते हैं, तब सामान्य पापक्षय तथा सामान्य पुण्योपार्जन करानेवाला प्रभाव तो अवश्यमेव रखते हैं ।'
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