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________________ ही (२) अनिश्चित कितने ही कर्म सावधानी एवं पुरूषार्थ से निपटाये जाएँ ऐसे थे वे भी निपटाये नहीं गये, और धर्म करने का अवसर खोया। कर्म कर्म क्या करते हो ? 'आगे जाकर पीछे हटना पड़े तो?' ऐसी कायरता क्यो रखते हो ? प्रभु ने सारा मोक्ष मार्ग स्थापित किया, और धर्म, सुकृत तथा गुणों के सेवन के लिए, एवं दोष-दृष्कृत-पाप की रूकावट के लिए जो पुरूषार्थ करने का उपदेश दिया सो इसी गिनती पर कि इससे आत्मा के ऐसे कितने ही अनिकाचित कर्म योंही नष्ट होने जैसे है, सो वे अवश्य कोरे के कोरे खत्म हो ही जाते हैं। नहीं तो अगर सबकुछ सम्पूर्ण ज्यों का त्यों भोगता ही पडता होता तब तो जीव मोक्ष-मार्ग साधना ही न कर सकता या उसमें आगे ही न बढ सकता। इसलिए फिर मोक्ष-मार्ग जैसी चीज ही नहीं रहती। फिर मोक्ष भी काहे का हो ? बस, पुराने कर्मो के उदय से नये पाप सेवन करने ही पड़ते हो और इन नयों के उदय से फिर आगे आगे पाप-सेवन निश्चित हो, तो हो चुका संसार अखंड धारा से शाश्वत काल चला ही करे। मोक्ष की बात ही क्य. ? लेकिन नहीं, ‘मोक्ष है, मोक्ष के उपाय हैं।' यह सूचित करता है कि इन मोक्षोपायों को साधने में ऐसे अशुभ रूप से उदय में आनेवाले इस तरह के कई अनिकचित कर्म कोरे के कोरे खत्म हो जाते है । और ऐसा होते होते आत्मा का ऊँचे चढना जारी रहता है । कर्म तथा धर्म-पुरूषार्थ के इस साइन्स को लक्ष्य में रख कर धर्म साधनेवाले जीवन जीत लेते हैं; और न समझनेवाले तथा कायर बने रह कर धर्म पुरूषार्थ से दूर रहनेवालों का बुरा हाल होता है | अतः विध्न से डर कर कायरता रखना गलत है | हिम्मत रख कर धर्म, सुकृत एवं सद्गुण के अभ्यास में लगे रहना चाहिए । उत्तरोत्तर आगे बढ़ना ही चाहिए। राजा दृढवर्मा यही विचार करता है, और उसके मंत्री यही कहते हैं कि 'महाराज ! बात आपकी सच है कि जब तक कार्य को दिल नहीं दिया जाता तब तक वह सफल नहीं होता, परन्तु दिल अगर दिया तो कार्य पूर्ण हुआ ही - सफल हुआ ही समझिये । और लौकिक शास्त्र कहते हैं - पुत्र के बिना सद्गति नहीं, तो अब पुत्र के वरदान हेतु किस देव की उपासना शुरू करनी है, इस संबंध में हमारा नम्र विचार यह है कि - "आपको भला महादेवजी, भवानी वगैरह देवीदेवताओं के पास जा कर साधना करने की क्या जरूरत है ? उसमें प्राण-हानि की आशंका रहती है | आप अपनी राज्यलक्ष्मी की अधिष्ठात्री कलदेवी की ही साधना कर उनसे ही वरदान माँगिये जो चिरकाल से आप के वंश में अनेकानेक ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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