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________________ पराक्रमी पुरूषों को तैयार करती आई हैं और पूर्वजों ने उन्ही की आराधना की है; वह राज्यलक्ष्मी आपके वारिस - उत्तराधिकारी को क्यों नही निर्माण करेगी ? अतः उनकी ही आराधना कीजिये ।' ___ मंत्रियों की बात युक्तिसंगत थी । साथ ही राजा को अपने बुद्धिमान मंत्रियों पर श्रद्धा भी थी। अतः उसने उनकी बात स्वीकार करते हुए कहा, - 'हे निर्मल बुद्धिधारी मंत्रीगण ! शाबाश ! बहुत अच्छे ! आपने श्रेष्ठ कहा है । पूर्व-पुरूषों ने जो अनिंद्य कार्य किया हो, पुत्र को भी वही करना चाहिए, ऐसा दुनिया का दस्तूर है । साथ ही सच बात यह है कि राज्यलक्ष्मी-देवता के दर्शन भी दुर्लभ है तो वरदान तो कितना अधिक दुर्लभ माना जाए ? अतः मुझे तो लगता है कि उनके दर्शन मात्र से सब अच्छा हो जाएगा । बस, सभा बरखास्त हुई । इस में से तीन महान् वस्तुएँ सीखने को मिलती हैं कि - (१) जिस किसी देवी-देवता की आराधना में लग जाने की अपेक्षा एक निश्चित फलदायक देव को ही पकडे रख कर उनमें ही श्रद्धा रख कर, उनकी ही आराधना में मग्न रहना चाहिए । (२) पूर्व-पुरूष जिनकी आराधना करते करते समृद्धि पाते आये हो उन्ही में . श्रद्धा रखना। (३) जिन देवता ने अतीत में दीर्घ काल से महान् फल दिखाना जारी रखा हो, हमें भी फलप्राप्ति के लिए उन्हे ही पकड़ रखना चाहिए । ५.अरिहंत ही उपास्य क्यों ? अब इस पर से एकमात्र अरिहंत परमात्मा की ही श्रद्धा रखकर उन्ही की साधना में लगे रहना फलित होता है | इसका कारण यह है कि यह बात सिद्ध है कि (१) वीतराग जिनेश्वर भगवान की बराबरी रागादि युक्त कोई देव नहीं कर सकता, तब भला ऐसे सर्व दोष मुक्त तथा अनन्तगुण-संपन्न परमात्मा मिलने के बाद अन्य किसी में मुँह डालने की ज़रूर ही क्या ? (२) दूसरे यह कि किसी भी मुमुक्षु - मोक्षार्थी जीव को रागादि दूषणों को दूर किये बिना चल नहीं सकता | वीतराग बने बिना मोक्ष नहीं ही होता तो फिर ४७ ४७ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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