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________________ कहीं पीछेहट नहीं करनी पडती । तप के अभ्यास से क्या धीरे धीरे आगे नहीं बढा जाता? क्या पीछे हटना होता है ? दान, सेवा, परोपकारादि के सुकृतों का अभ्यास करते हुए क्या आपत्तियाँ ही आती है ? क्या क्षमा-दया-गांभीर्यादि गुणों का अभ्यास करते समय हानि ही सामने आती है ? समझ रखो कि आत्मा में ऐसे तो कितनेही ढेरों बाधक कर्म है जो सावधानी और पुरूषार्थ के कारण अपने मूल रूप में विपाक न दिखा कर प्रदेश रूप में उदय में आकर कोरे के कोरे समाप्त हो जाते हैं । तब उनसे डरना क्या ? डर डर के धर्म से दूर क्या रहना ? निकाचित कर्म हैरान करेंगे यह डर व्यर्थ है - प्र० परन्तु जो ऐसे नहीं बल्कि अचूक आपत्तिकारक कर्म हैं वे विघ्न करें तब तो हार खानी पड़े न ? उ० क्या मतलब ? तब तो समझ लो कि धर्म न भी करो, सुकृत न करो, गुण का अभ्यास न करो, तो भी वे जटिल कर्म अपनी भूमिका तो अदा करेंगे ही। उदाहरणतया तप करते हुए किसी निर्धारित निकाचित कर्म के उदय से टी.बी., कैंसर जैसी कोई व्याधि आ गयी तो वह तो तप न किया होता तो भी आती ही । दुनिया में देखो तो सही कि क्या तपस्या करनेवालों को ही टी.बी; कैंसर आदि रोग होते है ? या तप न करनेवाले ढेरो आदमियों को भी ये रोग होते है ? अस्पतालें कि और औषधालयों में किनकी भरमार है ? खानेवालों की या तपस्या करनेवालों की ? तपस्वी तो उनमें कोई एक मिल जाए तो भाग्यशाली ! एक प्रतिशत भी नहीं मिलेगा। इसलिए व्याधि या अशक्ति अशाता के कर्मों का उदय होने के डर के कारण तपधर्म खोना होगा, जब कि निर्धारित निकाचित कर्म उदय में तो आएँगे ही । दान करने से शायद धन कम हो जाता, तो दान नहीं करने पर भी वैसे निश्चित अशुभ कर्मों के उदय से कम होगा सो होगा ही । कर्म अगर इतने जटिल पडे हुए है तो आप कहाँ जाएँगे ? धर्म-सुकृत करें चाहे न करें पर ये तो अपना काम करेंगे सो करेंगे ही। मूर्खता इतनी कि व्यर्थ कायरता में उत्तम धर्म-साधना, सुकृताचरण तथा गुणााभ्यास का अवसर खो दिया । अतः कायर की दोनों तरह से मौत है । (१) निकाचित अशुभ के उदय की वेदना तो निश्चित ही है, वरन् धर्म करने का सुन्दर अवसर खोया, अकेले पापारंभ और पापविचारों में ही भटका | साथ Jain Education International ४५ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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