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________________ शेष बचे हुए होते ही है अतः आगे चल कर भोगने ही पडेंगे । - फिर (३) कायरता यह खडी होती है कि 'हाय ! यदि काम प्रारंभ करूँ तो वे कर्म आकर हैरान करेंगे - अतः दूर हट कर पिछडना पड़ेगा और मेरे बारह बज जाऐंगे।" मूर्खता कहाँ ? : स्वार्थ में कायरता नहीं - खूबी तो यह है कि कोई क्षमा, कोई त्याग, तप, व्रत वगैरह धर्म-सेवन की बात आने पर ही यह कायरता उपस्थित होती है । परन्तु धंधा करने जाते समय या भोजन के लिए जाते समय या विवाहादि सांसारिक सम्बन्धों में शामिल होने जाते हुए इस कायरता को नहीं पालते । नहीं तो वहाँ ऐसा विचार क्यो नहीं आता कि “हाय! धंधा करने जाऊँ और ऐसे बुरे कर्म आ कर हैरान करें और लेने के देने पड जाएँ तो?" 'नौकरी करने जाऊँ और उसमें पापोदय के कारण मालिक, ग्राहक या दूकान के अन्य लोगों के षड्यंत्र में फँस गया तो ?' 'भोजन करूँ और किसी अशुभ कर्म के उदय से अन्दर मक्खी आदि आ जाने से कै (उल्टी) हो जाय तो? अथवा गैस के दबाव से कुछ उलटा हो जाय तो ?' 'शादी करूँ और कर्म ऐसे आ कर संतावें कि पत्नी दुश्मन या दुश्शील निकले तो?' 'मैत्री जोइं और मित्र धोखा दे तो ?' सांसारिक (दुनियाबी) स्वार्थ साधते हुए ऐसी ऐसी कोई कायरता पैदा नहीं होती; परन्तु गुनाह बेचारी धर्मसाधना का, सुकृताचरण का और गुणाभ्यास का, उसे करने के बीच अज्ञान-भ्रम-कायरता आ ही जाते हैं । यह कितनी मूर्खता और स्वहितघातकता है कि स्वार्थ में कायरता नहीं और परमार्थ में कायरता! सावधानी और पुरुषार्थ से कर्म हट जाते है विचारना तो यह चाहिए कि जिस तरह व्यापार - नौकरी करने में सावधानी न रहे तो जो अशुभ कर्म आकर हैरान करते हैं वे इतने जटिल नहीं है कि आकर हैरान करें ही, बल्कि सावधानी बरतने से वे कर्म दूसरे रूप में भोगे जाकर नष्ट हो जाते है; अतः आपत्ति खडी नहीं होती । इसी तरह जैसे भोजन सावधानी से किया जाय तो असावधानी में उदयमें आनेवाले अशाता कर्म इस सावधानी के कारण चालू शाता कर्म में शामिल होकर प्रदेश-उदय पाकर कोरे ही भोग लिए जाएँगें । अशाता का अनुभव नहीं होगा। इस तरह किसी धर्म, किसी सुकृत या किसी गुण का अभ्यास करने, स्वीकारने में सावधानी और उचित पुरूषार्थ जाग्रत रखने से ऐसे कितने ही विघ्नभूत कर्म यों ही भोगे जाकर नष्ट हो जाते हैं, और ४४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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