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जाव य न देंति हिययं पुरिसा, कज्जाइं ताव विहडंति।
अह दिण्णं चिय हिययं, गुरूं पि कज्जं परिसमत्तं।। जब तक मनुष्य कार्य को अपना दिल नहीं देता तब तक ही कार्य सिद्ध नहीं होता । नहीं तो दिल दिया कि बड़ा कार्य भी पूर्ण हुआ ही समझिये । अतः आपका विचार सुन्दर है । परन्तु किस देव की साधना में लगना - इस सम्बन्ध में हम अपना नम्र मत प्रस्तुत करते है।'
राजा एवं मंत्री दोनों यह बात समझते हैं कि कार्य को हृदय दो अर्थात यह बात मन पर ले लो कि मुझे यह काम करना ही है तो फिर वह कैसे सिद्ध न हो ? पूछिये -
प्र० क्या भाग्य मनोभिलषित की प्राप्ति में रूकावट नहीं डालता? उ० इसमें दो बाते हैं। (i) एक तो योग्य व्यक्ति ऐसा अयोग्य या असंभव कार्य मन पर लेते ही नहीं। पास में फूटी कौडी नही और सोचे कि मैं करोडपति बने बिना न रहूँ तो यह हुआ असंभव कार्य । अथवा सोचे कि 'मै पैसे बिखेर कर अमुक स्त्री को वश में किये बिना नहीं रहूँगा' – तो यह है अयोग्य विचार | ___ योग्य व्यक्ति असंभव सोचता नही अथवा संभव भी अयोग्य विचारता ही नहीं ।
योग्य बनने की कुंजी
अगर असंभव या अनुचित विचार करे तो योग्य विचारक काहे का? लियाकत या योग्यता बढाने-विकसित करने की यह एक कुंजी है कि हम अयोग्य या असंभव न सोचें।
कायर बनाने वाले अज्ञान और भ्रम -
(२) दूसरी बात यह है कि संभव तथा योग्य के विषय में भी यह जो विचार आता है कि 'भाग्य हमें पीछे धकेलेगा तो ?' सो विचार कायरता के घर का है
और यह कायरता अज्ञान तथा भ्रम के घर की है । (१) अज्ञान यह कि हमें यह पता नहीं है कि 'भाग्य यानी कर्म तो ऐसे कितने ही है जिन्हे हम शुभ योग - शुभ उपयोग द्वारा 'कु' में से 'सु' में अर्थात बरे में से भले में परिवर्तित कर सकते हैं, अथवा हटा सकते हैं | तो यह हमें मालूम नहीं, इस से उसकी अज्ञानता में ऐसा भ्रम पालते हैं । (२) भ्रम यह कि 'हमें बाधक कर्म हैरान करते हैं, और वे तो
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