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ऐसा प्रभाव कि जिसके कारण उन्हीं को नमन, बिनती करो तो वस्तु सिद्धि होती है यह तथ्य है । अतः उनके आगे बारबार नमस्कार, शरण और प्रार्थना की जरूरत है।
पुत्र के हेतु राजा की देव-साधना
पैरों पड कर रानी ने प्रार्थना की तो राजा पहलें जिस वस्तु को भाग्य पर छोडता था उस वस्तु के देव की सहायता से हो सकने की बात मान लेता है । देवता के प्रभाव से वस्तू क्यों न बने ? अनुकूल भाग्य क्यों न जगे ? यह उसके मन पर छा गया । अतः अब रानी से कहता है - 'ठीक है, मैं देव को प्रसन्न कर के पुत्र माँगूंगा । अतः तुम खेद या विषाद मत करो, और स्नान, भोजन इत्यादि कामों में लग जाओ।
शत्रुका भला पुत्र आ गया। उसने कैसी वस्तु खडी की | जीवन में एकाध निमित्त मनपर हावी हो जाय तो क्या क्या नहीं करता ? हमें प्रभु प्राप्त हुए, यह
भी यदि मन में घर कर ले, मन को ऐसा लगे कि 'अहो ! इस भगवानने स्वयं ‘कई भवों की साधना से देवत्व पाया है तो मैं भी उस रीति से क्यों न पा. सकूँ?' तो हमारे जीवन में भी अद्भुत, अभिनव साधनाएँ एवं पुरूषार्थ खिल उठे।
अच्छे निमित्त को मन पर लेना चाहिए | संकल्प करना चाहिए । और बूरे का विचार ही नहीं करना चाहिए। - अब राजा ने भोजनादि निपटाकर मंत्रियो को एकत्र किया ओर जो हुआ था सो उन्हें बता कर कहा - 'मै अब किसी देव की उपासना करने जानेवाला हूँ और पुत्रप्राप्ति का वरदान लेकर ही लौटूंगा।'
मंत्रीगण यह सुन कर प्रसन्न होते हैं और कहते हैं – ‘महाराज ! बहुत सुन्दर विचार है, देव की प्रार्थना का ।' निःसंदेह पुत्र का वरदान प्राप्त करना भगीरथ कार्य है, फिर भी ऐसे तो कायर, असमर्थ मनुष्यों को तिनके जैसा तुच्छ कार्य भी बडे पहाड़ सा लगता है; जब कि शक्ति-पुरूषार्थ-वीर्योल्लास से पूर्ण व्यक्ति के लिए तो महान् पर्वत समान कार्य भी तिनके जैसे आसान बन जाते है। अतः आपने जो सोचा है कि 'कुपित हुआ भाग्य भी मेरे कार्य को बदल नहीं सकता? क्या गुस्सा हुआ सियार केसरी सिंह को किसी तरह की रूकावट कर सकता है?' यह सोचा सो उचित ही है, और उसका कारण सोचा सो भी ठीक ही है
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