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________________ अपने पुरूषार्थ के गर्व में दौडा करे उसे इष्टसिद्धि नहीं होती । यह समझना चाहिए कि 'हमारी क्या बिसात ? ताकत (शक्ति) देवाधिदेव की है। वे हित का मार्ग दिखाते है; वे जानते है। हित-अहित अतीन्द्रिय परोक्ष-वस्तु है । सर्वज्ञ उसे जानते हैं। हम नही समझ सकते । उन्होने देखा कि 'स्त्री के आसन पर बैठना अहित है, वहाँ हमें इस बात का क्या पता लगे कि 'कैसे अहित होता होगा, उसके पुद्गल कैसा असर करते होंगे? स्त्री के बैठने के बाद उसके सूक्ष्म पुद्गल वहाँ चिपके तो हमें थोडे ही दिखाई देते हैं ? उनका गुप्त प्रभाव थोडा ही दिखाई देता है ? ऐसे हित-अहित के ज्ञाता तो वे भगवान् ही है । उनके आगे हित की प्रार्थना करें तो हमारा अहंत्व दबता है, उनकी शरण मन पर हावी होती है और हमें एक ऐसा फोर्स-बल मिलता है, ताकत मिलती है कि जिससे पुरूषार्थ सफल हो । गणधर भगवान इस प्रार्थना बल और अरिहंत भगवान की शरण लेने का प्रभाव समझते होंगे तभी तो उन्होने ऐसे ऐसे सूत्र रखे है न ? देखिये 'तित्थयरा मे पसीयंतु' 'आरूग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु' 'धम्मो वड्डउ...धम्मुत्तरं वड्डउ' आदि क्या है ? प्रभु के प्रभाव से वस्तु सिद्ध होती है इस गिनतीसे ही तो 'होऊ मम तुहप्पभावओ.... भवनिव्वेओ, मग्गाणुसारिआ....' 'मुझे आपके प्रभाव से हो - भव-निर्वेद, मार्गानुसारिता...' आदि कहा न ? वीतराग प्रभु कृतकृत्य है – वे कुछ करने नहीं बैठते; परन्तु उनके अचिंत्य प्रभाव से यह सब बन आता है यह हकीकत है; इसीलिए तो ऐसी गणधर वाणी है कि 'आपके प्रभाव से हो ।' वे कोई असत्य या औपचारिक नहीं बोलते, अतिशयोक्ति नहीं करते । सच्चाई ही यह है कि प्रभु के प्रभाव से वस्तु सिद्ध होती है | पूछिये - प्र० - प्रभु के प्रभाव से सिद्धि होने का सबूत क्या है ? उ० - दूसरे किसी को नहीं लेकीन प्रभु को नमें (प्रणाम करें) पूजे, जपें, याद करें, बिनती करें तो महान् वस्तुएँ सिद्ध होती हैं - सो ऐसा होने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं। तब और किसी को नहीं परन्तु प्रभु को नमन आदि करने से सिद्धि होती है तो इसमें प्रभु की कोई विशेषता होनी ही चाहिए यह तो सही है न? यह विशेषता - यह प्रभाव क्या है सो कहा नहीं जा सकता । यह हमारी कल्पना में नहीं आता इसीलिए यह प्रभाव अचिंत्य कहलाता है । पर है सही उनका कोई ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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