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________________ हो, वहाँ श्रद्धा-प्रेम-विहीन प्रार्थना सच्चे दिल में से कहाँ उठी हो? वह कहाँ से फले ? उसी तरह प्रार्थना करते हुए दिल गद्गद् न होता हो, हृदय को छुए बिना, हिया काँपे-गिडगिडाये बिना, शुष्क हृदय से प्रार्थना के शब्द निकलते हों तो उसमें भी 'प्रार्थना' अर्थात् प्रकर्ष से अर्थना है ही कहाँ ? सचमुच खूब आग्रह से माँगना-जाचना है कहाँ ? वास्तविक माँगना-जाचना कैसा होता है ? जैसे तीन दिन का भूखा भिखारी आशास्पद दाता से याचना करे वैसा ! जहाँ याचक को लगे कि “मुझे सचमुच यह वस्तु चाहिए, इसके बिना मैं तडप रहा हूँ, दुखी हूँ, नष्ट हो रहा हूँ | मेरा इसके बिना चलेगा ही नहीं । और यह दाता देगा ही, ऐसा है;' ऐसा महसूस हो तो प्रभु के आगे गद्गद् हृदय की प्रार्थना फूरे ।। __ अब देखें, पूछो तो आत्मा से कि तुम हर रोज भगवान के सामने जो स्तुति बोलते हो, स्तवन गाते हो, तथा 'जय वीयराय सूत्र' बोलते हो उसमें जिस जिस वस्तु की माँग की जाती है, सो सो वस्तु क्या तुम्हें सचमुच ही चाहिए ? उनकी प्राप्ति के बिना क्या तुम दुःखी हो ? नष्ट हो रहे हो ? क्या तुम उनके बिना छटपटा रहे हो, अतः माँगते हो ? या यूँ ही बोलने के लिए बोल देते हो ? बस, बात यह है कि उस 'भव निव्वेओ (भव-निर्वेद) मार्गानुसारिता, गुरूजनपूजा आदि की सच्ची भूख पैदा करो कि 'यह मुझे चाहिए ही, इनके बिना मैं छटपटा रहा हूँ, इन के बिना मुझे चल ही नही सकता' दिल में यह भाव जगाओ तो यह प्रार्थना विफल (वन्ध्य) नहीं होगी । रानी को राजा पर श्रद्धा है, प्रेम है और वह गद्गद् हृदय से प्रार्थना करती है कि 'आप (चाहे) किसी भी देव की आराधना कर के उससे पुत्र की माँग कीजिये।' रानी की यह प्रार्थना मंजूर होती है | राजा कहता है, 'तुम जैसे कहती हो वैसे मैं अवश्य करूँगा ।' राजा के सामने रानी की प्रार्थना स्वीकृत हुई । प्रभु से प्रार्थना का बल __ एक सामान्य मनुष्य से की हुई प्रार्थना स्वीकृत होती है और तीन लोक के नाथ से प्रार्थना की जाय वह स्वीकृत न हो-ऐसा मानना प्रभु पर अश्रद्धा है, प्रभु को निर्बल मानने जैसा, अकिंचित्कर मानने जैसा है । दृढ श्रद्धा होनी चाहिए कि 'प्रभु से प्रार्थना करने से अचिंत्य सिद्ध होता है | हरिभद्र सरिजी महाराज कहते है - "प्रार्थनात एव इष्टं सिद्धिः" प्रार्थना से ही इष्ट सिद्धि होती है । मन चाहा मिलता है । प्रार्थना न करे और ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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