________________
|४. प्रार्थना से इष्टसिद्ध ।
| 'मेरा कोई न जगत में, तुम छोरी हो जिनवर जगदीश ।। प्रीत करूँ अब कोन शुं, तुं त्राता हो मोहे विसवा वीश ।'
जगत में उत्तम पुण्य भी भगवान के द्वारा ही मिलता है, जिसमें से अच्छा अच्छा बनता है, उसी तरह उत्तम आत्महित भी भगवान् के आलंबन से ही उपस्थित होते हैं, तब फिर व्यर्थ ही बेढंगे प्रयल क्यों करूँ ? एक मात्र प्रभु के साथ ही न लगा रहूँ ? प्रभु पर एवं प्रभु की अचिंत्य शक्ति, अचिंत्य प्रभाव पर ऐसी आस्था, श्रद्धा, यकीन चाहिए, उन पर ऐसा प्रेम उत्पन्न होना चाहिए! ___ प्रभु पर प्रेम यह कि ‘नाथ ! इस दुनिया में आप के सिवा मेरा कौन है ? कवि ने कहा है -
तू ही मेरा बीसों बिस्वा रक्षक है। जीवन में आपत्तियाँ आने पर, हे प्रभु ! तेरा स्मरण मुझे आश्वासन देता है । क्रोध या घमंड का प्रसंग आने पर मैं तेरी क्षमालघुता को याद करता हूँ और यह मुझे उन क्रोधादि कषायों से बचाती है। पुण्य की अल्पता के कारण मुझे सुविधा की सामग्री कम मिली - ऐसे समय तेरा ध्यान मुझे दैन्य से बचाता है। अर्थात् हे प्रभु ! तुझे वैभवादि खूब मिला था फिर भी तूने जो उसका त्याग किया और कष्टमय अकिंचन स्थिति अपनायी थी, उसका स्मरण मुझे शक्ति देता है, दीनता, विवशता तथा रूदन से बचा लेता है; तो यहाँ लिया हुआ एकमात्र तेरा सहारा भवान्तर में तो और भी कितनी ही उत्कट उष्मा और समृद्धि स्थिती प्रदान करता है । मेरे ऐसे त्राण-प्राण-शरण भूत प्रभु ! तुझे छोड अन्य किस से प्रीति करूँ ? मेरे नाथ ! तूही मेरा वल्लभ, (बालम) तू ही मेरा प्यारा, तू ही मेरे मन - मयूर का मेघ है । मेरे मस्तक का मुकुट, हृदय का हार और मेरी आत्मा के लिए बार बार जाकर आश्रय लेने का स्थल आत्माराम तू ही है।
प्रार्थना गद् गद् हृदय से
प्रभु पर यह श्रद्धा और यह प्रेम हो, और फिर प्रभु के सम्मुख अत्यन्त करूण, अनुनय-विनय पूर्ण प्रार्थना हो तो क्या मजाल कि फले बिना रहे ? अवश्य फले |
अन्यथा यदि दिल में किसी और के प्रति श्रद्धाएँ पडी हो, प्रेम अन्यों पर जमा
३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org