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________________ ही दोष है । इसलिये मुझे किसीको भला-बुरा कहने या हल्के मानने की कोई जरूरत नहीं । मेरे पूर्व के किसी दुष्कृत्य के कारण ऐसा दुर्भाग्य पैदा हुआ होगा । तो अब ऐसे नये दुष्कृत्य न करके अरिहंत परमात्मा की शरण ले लूँ ।' 'अरिहंता मे सरणं' 'प्रभु ! यह जो कुछ भी हो रहा है, उसमें मैं नादान हूँ, अशक्त हूँ, मुझे तो अचिंत्य शक्ति व अचिन्त्य ज्ञान वाले ऐसे आपकी ही शरण है। मुझे तो आपका ही आधार है । मुझे पूर्व की संपत्ति, ओहदा या होशियारी, किसीका आधार नहीं, मुझे तो आप ही का आधार है ।' बस, इसी विचार से गर्भवती सीता जंगल में अकेली पडने पर भी स्वस्थ रहीं, खेद-शोक- कल्पांत करके नहीं बैठीं । यहाँ राजा दृढवर्मा रानी को यही कहता है कि 'पुत्र मिलना मेरी होशियारी या पुरूषार्थ से कुछ होने वाला नहीं। तो फिर बिना कारण गुस्सा क्यों करती हो ?' पुत्र के लिये रानी व्दारा उपाय का सूचनः परन्तु रानी ने तो मन में उपाय सोच रखा था, इसीलिये वह कहती है - 'देव ! मैं कारण के बिना नहीं रुठी हूँ । आप के वचन का उल्लंघन तो देवता भी नहीं कर सकते । वे भी आपके वचन को स्वीकार ही लेते हैं। यदि आप किसी देवता की आराधना करे और मेरे लिये एक पुत्र की प्रार्थना करें, तो मेरे मनोरथ सफल नहीं होंगे ? नाथ ! मुझ अभागिन पर मेहरबानी कीजिये,' ऐसा कहते हुए रानी राजा के चरणों मे मस्तक रखकर प्रणाम करती है । प्रार्थना कब फलती है ? वैसे भी राजा को रानी पर अतीव प्रेम तो है ही और उस पर वह राजा के पाँवो में गिरकर आजीजी भरी अरजी करती है तो राजा की क्या मजाल कि उसकी बात न माने ? हम परमात्मा के पास प्रार्थना तो करते हैं, परन्तु वह फलती क्यों नहीं ? कारण यही है कि एक तो उन पर ऐसा प्रेम और ऐसी श्रध्दा नहीं, और दूसरी बात यह है कि हमें ऐसी अनुनय भरी हार्दिक अरजी करनी आती ही नहीं । प्रभु पर श्रध्दा यही कि 'मुझे जो कुछ भी अच्छा हुआ है और होगा, वह मेरे प्रभुजी से ही हुआ है और होगा । Jain Education International - ३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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