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________________ की कमी ? बिनकारण रुठने का प्रयोजन ? जिसने तुझे गुस्सा दिलाया है, उसे मैं हजार सोनामुहरों का दान दे दूँ कि ऐसा करके भी उसने तेरे नयन कमल से अधिक शोभा वाले बनाये ? ऐसे अपूर्व नयनों का दर्शन कराके वैसे तो उपकार करनेवाले उसने भी मुझ पर उपकार किया है, ऐसा मैं मानता हूँ ।' यह सुनकर रानी हस पड़ी और कहती है- 'देव ! आपकी कृपा से मुझे सब कुछ अच्छा है, परन्तु मंद भाग्यवाली मुझे उस मालवराज के आये हुए पुत्र महेन्द्रकुमार जैसा पुत्र नहीं, इससे मुझे अपने आप पर उद्विग्नता व तुम पर क्रोध आया है । ' यह सुनकर राजा सोचता है- 'अहो ! देखो, अविवेकी नारी जात के असंबद्ध प्रलाप । इसे पुत्र नहीं, इसके लिये मुझ पर क्रोध, गुस्सा । ऐसे झूठे वचनों से ही स्त्री कामी जनों के हृदय का हरण करती है । वह रानी को कहता है - देखो ! इसका क्या उपाय है ? पुत्र होना तो दैव के आधीन है, इसमें पुरूषार्थ को कहाँ अवकाश है? अत्थो विज्जा पुरिसत्तणाई अण्णाई गुणसहस्साइं । देवायत्ते कज्जे सव्वाई जणस्स विहडेंति ॥' - अर्थात् जो कार्य होना सिर्फ भाग्य के अधीन है, उस कार्य के पीछे चाहे जितने पैसे, विद्या- कला, पुरूषार्थ या दूसरे हजारों गुण खर्च करेंगे, फिर भी यदि भाग्य विपरीत हो, तो ये सब व्यर्थ जाते हैं । भाग्य अलग दिशा में काम करता हो और पैसा उसके सामने वाली दिशा में फल लाने के लिये खर्च किया जाय, तो इससे वह फल नहीं देगा । परिणाम तो भाग्य के अनुसार ही आने वाला है । कितने ही सट्टेबाज भाग्य की गिरती हुई हालत में पैसों के जोर पर मन माना व्यापार करते गये और बर्बाद हो गये । एकाध सौदे में परिणाम स्वरूप भाग्य थोडा भी कमजोर दिखा कि वहाँ अक्लमंदी तो इसीमें थी कि परिस्थिति को भाँप कर व्यापार बंद करके घर बैठ जाता ! परन्तु मूढता - अज्ञानता के अंधापे में मनुष्य भाग्य चक्र की करामात देख नहीं सकता ! इसीलिये वह पूंजी और बुध्दि के भरोसे दौडता है कि, 'ऐसे कमा लुंगा,' परन्तु पूंजी और बुध्दि दोनों बर्बाद करता है, और ऐसी पछाड खाता है कि शायद जिंदगी में भी ऊंचा न आये ! Jain Education International ३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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