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(४) सौतन झगड़ा खड़ा करे । (५) सासु कुछ ऐसी बड़ाई मारे या व्यंग करे | परन्तु यहाँ तो इनमें से एक भी कारण ही नहीं दिखता, क्योंकि,
(१) मेरे मन में तो यह महारानी मेरी राज्यसंपत्ति की ही नहीं, मेरे जीवन की भी स्वामिनी है । मेरे दिल में इसके प्रति अपरंपार स्नेह है, फिर स्नेह का भंग करने का तो सवाल ही कहाँ उठता है ?
(२) नाम के संबोधन में भी कुछ गलत होने की संभावना नहीं, क्योंकि मैं सारे अन्तःपुर को 'प्रिये !' 'देवी !', ऐसे संबोधन से ही बुलाता हूँ |
(३) परिवार व सेवक वर्ग भी इतना गुणवान है कि कोई उद्दण्डता से इसकी आज्ञा भंग करे वैसा नहीं हैं ।।
(४) सौत के झगडे का भी यहाँ कोई अवकाश ही नहीं है। क्योंकि सब रानियाँ इसे एक स्वर्ग की देवी जैसी मानती हैं, और देवी के साथ कोई थोड़े ही झगड़ेगा?
(५) सासु के बड़ाई मारने व व्यंग्य करने की भी कोई संभावना ही नहीं, क्योंकि मेरी माताजी तो कभी स्वर्ग सिधार चुकि है |
तो फिर महारानी को क्रोध करने का क्या कारण होगा ? राजा सोच में पड़ गया । किन्तु अब वह समय बर्बाद न करके जल्दी से जल्दी खोज करने के लिये लालायित बना है । इसीलिये पूछता है - 'कहाँ है देवी ?'
सुमंगला कहती है - 'कोप भवन में ।'
राजा जल्दी वहाँ पहुँच जाता है । देखिये, स्त्री के कारण कितने तुच्छ हैं | कितनी संकुचित बुद्धि के हैं। पति के प्रेम में थोड़ी-भी कमी देखी कि मन बिगड़ा ही समझो। यह कैसी बात ?
राजा दृढ़वर्मा अपनी पटरानी के क्रोध के बारे में विचार करता है कि स्त्रियों को तुच्छ कारणों से गुस्सा आता है, परन्तु यहाँ तो ऐसी कोई बात नहीं । तो फिर रुठने का कारण क्या ? खैर, उसे ही पूछ हुँ ।
राजा कोपगृह में जाकर देखता है तो रानी कश शरीर और म्लान मुखवाली बन गयी है । इसके मन में भारी दुःख है । फिर भी वह राजा के आने पर विनय से खड़ी हो गयी और राजा को बैठने के लिये आसन दिया।
राजा पूछता है - 'प्रिये ! क्यों बिना कारण इतना दुःख कर रही है ? मेरे ख्याल से तो मेरे हाथों तेरा कोई अपराध नहीं हुआ है । तब क्या किसीने तेरा अपमान किया ? अथवा तेरी कोई इच्छा पूर्ण नहीं हुई ? मेरे होते हुए, तुझे किस बात
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