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गोद में रोने के बदले आनन्द से, मजे ले रहा हूँ ।'
संसार अपना घर नहीं, पराया घर है ; संसारी हमारे सगे नहीं, हमारे दुश्मन हैं ।
यह खयाल सदा जीता-जागता होना चाहिये । कोई किसीको अपने खुद के घर से बाहर निकालेगा? जबकि यहाँ तो अपना वक्त पूरा होते ही देशनिकाला मिलता है । देशनिकाला तो पराये घर से, दुष्मन के घर में से होता है । दूसरे विश्वयुद्ध के समय आस्टेलिया में घुसे हुए जपानियों को फिर वहाँ से निकाल दिया गया । संसार के जन्मों में से ऐसे निकाले का शिकार बनना पड़ता हो, तो यह अपना घर या पराया? अपना घर तो मोक्ष है कि जहाँ एक बार आराम से बैठने के बाद फिर कभी वहा से निकाला नहीं होता ।
दृढ़वर्मा राजा के वहाँ आया हुआ और उसकी गोद में बैठा हुआ मालवराज का बालपुत्र कहता है - ‘धिक्कार है मुझे कि इन्द्र जैसे पराक्रमी के पुत्र होते हुए भी मुझे दुश्मन की गोद में बैठने का अवसर आया !'
आप कहाँ बैठे हैं ?
भगवान की गोद में ? या दुश्मन की गोद में ? इसका विचार भी है ? विचार हो तो सांसारिक घर-दुकान में उमंग होगी ? कि धिक्कार लगेगा ? शर्म महसूस होगी ? कि मुझे मेरे भगवान के घर में रहने के बदले दुश्मन के घर में रहना होगा?
पांच वर्ष के बालक की बात पर राजा दृढ़वर्मा आश्चर्यचकित हो जाता है । वह बोल उठता है कि ओह ! क्या इस बालक का स्वाभिमान ! क्या इसकी गौरवशालिता ! कैसी इसकी व्यवस्थित बोली ! कैसी इसकी कार्य-अकार्य की विचारणा ! ऐसी बाल्यावस्था में भी बुद्धि का कैसा विस्तार व कैसी शब्दरचना ?'
राजा की कद्र :
राजा इसमें बहुत तत्त्व देखता है । बालक को दुश्मन की गोद में बैठना पड़ा, यह अपमानजनक लगता है, कलंक लगता है, उसकी राजा कद्र करता है ।
उसके हृदय में स्वयं एक पराक्रमी पिता का पुत्र होने का गौरव है । चाहे उसे शत्रु की गोद में प्यार मिला, परन्तु इसमें उसे अपना स्वाभिमान छीनता हुआ महसूस हुआ | दुश्मन का प्रेम भी लेने की स्थिति में आना पड़ा, यह उसे अकार्य लगता
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