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________________ जो सीना तानकर लड़कर प्राप्त की हुई विजयलक्ष्मी को सूचित कर रहा है। राजा तो देखकर खुश हो जाता है । 'योग्य व्यक्ति का योग्य सन्मान करना ही चाहिये,' अतः राजा भी उसके झुके हुए सर पर हाथ फेरता है, और तुरन्त 'आसन, आसन' कह कर आसन पर बैठने के लिए हाथ से संकेत करता है । विवेकी सुषेण भी एकदम से बैठ नहीं जाता । महारानी को नमस्कार करता है, मंत्रियों को प्रणाम करता है, फिर बैठता है । जहा छोटों का ऐसा विनय - विवेक हो और बड़ों का, छोटी परन्तु योग्य आत्माओं के प्रति ऐसा वात्सल्यदर्शन व योग्य सन्मान हो, वहां आपसी जीवन की गाड़ी कितने सुख व आराम से चलती है ? राजा दृढ़वर्मा अब सेनापतिपुत्र सुषेण से पूछता है, 'मालवा के राजा के साथ तुम्हारा क्या हुआ ? सारी बात बताओ ।' सुषेण द्वारा सारी बात का बयान : सुषेण उत्तर देता है - महाराज ! आपके आदेश से मैं यहाँ से गया और सेना के साथ मालवा पहुँच गया । वहाँ का राजा तो मदान्ध, शरण में कहा से आये ? युद्ध की ललकार लगाते हुए वह सेना लेकर लड़ने आया । जोरदार लड़ाई छिड़ गयी अपनी सेना ने गजब का पराक्रम दिखाया ! अपनी व्यूह रचना भी इतनी कुशलताभरी थी कि जिससे मालवा की सेना परास्त हो गयी । यहा पर चरित्रकार युद्ध में कैसी मार-काट चली उसका वर्णन करते हैं । इसके अन्त में सुषेण के ये शब्द कहते हैं : - 'देव ! आपकी कृपा से दुश्मन की सेना अन्त में, मर-मिटने की तैयारी न होने से, खड़ी भी कहाँ से रहे ? सारी सेना भाग गयी । राजा भी न जाने कहाँ गया ? परन्तु महाराज ! क्या बताऊँ ! एक आश्चर्य की बात की मालवराज का पांच वर्ष का बालकुमार युद्ध करने के लिए सामने आया ! उसका पराक्रम तो एक नवयुवक को शोभा दे, वैसा था । उसकी लड़ाई किसी और के आधार या सहारे पर नहीं, परन्तु स्वयं की ही शक्ति पर थी। हमने उसे जिंदा पकड़ लिया। भारी-भारी माल के साथ हमने उसे भी उठाया, वहा आपकी विजयपताका लहरा दी और सब कुछ लेकर हम आपकी सेवा मे उपस्थित हुए हैं ।' धर्मी को आनन्द कहा ? : यह सब सुनते-सुनते राजा को तो आनन्द ही आनन्द होने लगा । संसारी जीव को मनचाहे अर्थ- काम की प्राप्ति में आनन्द होने का तो पूछना ही क्या ? धर्मी आत्मा को धर्म की वृद्धि में आनन्द होना सहज ही है । वह जैसे-जैसे दया दान २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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