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________________ प्राप्त हुआ । ऊहापोह करते हुए उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हुआ । फिर तो महर्षि जैसे-जैसे आगे-आगे गवाते गये, वैसे वैसे चोर प्रतिबोध पाते गये और रास के अन्त में सब चोर संयमधर साधु बन गये !! चरित्रकार कहते हैं कि 'इस प्रकार आक्षेपिणी आदि चार प्रकार की कथा धर्मकथा है । हम भी यह चरित्र रच रहे है, इसमें आक्षेपिणी कथा का भी उपयोग करेंगे। क्योंकि यह धर्म की प्राप्ति कराने में हेतु है । इतना तो सहि है कि उपदेशक को आक्षेपणी कथा का उपयोग करने के बाद विक्षेपिणी आदि कथाओं का सही उपयोग करने आना चाहिये, यह न आये तो अनर्थ हो जाय । चरित्रकार कहते हैं कि मुझे यह कथा ह्रीदेवी ने कही और इस देवी की ही कृपा से विस्तार करके यह चरित्र मैं कहता हूँ, वह आप सुनिये । चरित्रकार कवि हैं। वे कहते हैं कि 'कवि खल पुरूषों से डरते हैं ।' डरने का कारण बताते हैं, - खल पुरूष कुत्ते की तरह पहले भौंकते हैं, फिर पीछे से काटते हैं। कौए की तरह भक्ष्य के छिद्र में जीभ डालने रूप चोंच मारते हैं; गधे की तरह सज्जनों की ऋद्धि देखकर स्वयं उसे भोग न सकने से ईर्ष्या से जलते हैं, साँप की तरह छिद्र खोजकर उसमें प्रवेश करते हैं, वक्रगति वाले होते हैं और खली की तरह स्नेहरहित व पशुतुल्य मनुष्यों द्वारा भोग्य बनते हैं । ऐसे खल दुर्जन पुरुषों से क्या डरना ? अच्छा काम करना हो, तो उनकी अवगणना करके सुजन पुरुषों को दृष्टि में रखकर शुभ काम करना चाहिये, क्योंकि वें गुण के ग्राहक होते हैं । किसकी तरह ? सुजन कैसे-कैसे ? सुजन पुरूष राजहंस जैसे हैं। जिस प्रकार राजहंस दो उज्ज्वल पक्ष - पंख वाले होते हैं तथा 'पय' विशेष यानी दूध को समझकर उसे ही ग्रहण करने वाले होते हैं । उसी प्रकार सुजनों के उभयपक्ष-मातृपक्ष पितृपक्ष उज्ज्वल होते हैं, तथा वे 'पय' अर्थात् पद के विशेष रहस्य को समझकर उसे ही ग्रहण करने वाले होते हैं । वे पूर्णिमा के चन्द्र की तरह सर्व कलाओं से भरे हुए और जन-मन को आनन्द देने वाले होते हैं । विशेष में, वे तो फिर निष्कलंक होते हैं । T वे मृणाल जैसे होते हैं । उन्हें पीस दिया जाय, तो भी उनके स्नेहतंतु अखंडित रहते हैं; वें सुशील होते हैं । विशेषता यह है कि मृणाल स्वभाव से कुछ तुरे और जल यानी जड़ के संसर्ग वाले हैं, जबकि सुजन मधुर स्वभाव वाले और सुज्ञ का संसर्ग रखने वाले होते हैं । Jain Education International २४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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