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________________ यह गवाने से चोरों के चित्त में स्त्रियों के प्रति विक्षेप पैदा हुआ, आकर्षण कुछ कम हुआ, मन में हुआ कि 'तो फिर मलमुत्र आदि से भरी हुई ऐसी स्त्रियों में अच्छा क्या ? ऊपर से सिर्फ (अच्छे) गोरे रंग का चमड़ा मढ़ा हआ है, इसीलिये क्या स्त्रियाँ अच्छी ? विष्ठा की थैली पर रेशमी कपड़ा ऊपर से सजाने से, वह थोड़े ही अच्छी कही जाएगी ?' यह क्या हुआ ? आकर्षण से पीछे हटे, मन का विक्षेपण हुआ । यह कराने वाले वचन हैं - विक्षेपिणी कथा । यह है - कथा का दूसरा प्रकार । अब संवेगिनी कथा प्रस्तुत करते हुए महर्षि गवाते हैं - “कमल - चंद - नीलुप्पल - कंति - समाणयं, मुढएहि उवमिज्जइ जुवइ - संगयं। थोवयं पि भण कत्थइ जइ रमणिज्जयं,असुइयं तु सव् चिय इय पच्चख्यं ।। संबुज्झह किं न बुज्झह....' अर्थात् 'युवती के अवयव हिरण, चन्द्र, नील कमल आदि की कान्ति जैसे हैं', ऐसी तुलना मूढ जनों द्वारा की जाती है ! परन्तु बताओ तो सही, उसमें कहीं थोडी भी रमणीयता है ? वास्तव में तो उसका सब कुछ अशुचिमय है, गंदा है। यह प्रत्यक्ष दिखता है, इसीलिये बोध पाओ। क्यों बोध नहीं पाते ?...' यह सुनकर चोरों को संवेग उत्पन्न हुआ । अर्थात् स्त्रियों के शरीर के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् कपिल महर्षि निर्वेदिनी कथा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं"जाणिऊण एवं चिय एत्थ संसारए, असुइमेत्त - रमणूसय - कय - वावारए॥ कामयम्मि मा लग्गह भव - सय - कारए, विरम विरम मा हिंडह भवसंसारए ।। | संबुज्झह किं न बुज्झह ...' अर्थात् यह जानकर, इस संसार में सिर्फ अशुचि में रमण करने के उत्सव में प्रवृत्ति कराने वाली कामक्रीडा में मत मन लगाओ । क्योंकि यह तो सैकड़ों भवों का भ्रमण कराती है। इससे विराम पाओ, विराम पाओ और भव में भटकना बन्द करो। बोध पाओ, क्यों बोध नहीं पाते ?...." यह सुनकर चोरों को निर्वेद उत्पन्न हुआ, अर्थात् संसार के अशुचिमय कामसुखों पर वैराग्य हुआ, भव में भटकने का खेद जगा, थकावट लगने लगी। . इन चार प्रकार की कथाओं से जिस प्रकार चोरों का मन कामसुख पर से उठ गया, वें उनसे निवृत्त हो गये, क्रोध-मान-माया-लोभ तथा कुधर्मों से भी निर्वेद - - - २३ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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