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ऐसा होने लगा कि - 'अरे ! मैं फिर किस चक्कर में पड़ा हूँ ? महाराज इसमें कुछ गलत थोडे ही कह रहे हैं ? पैसों के पीछे पागल बनने के बाद तिर्यंच या नरक गति में फँस गये, तो वहाँ कितना दुःख ? कितने कष्ट ? कितनी विडंबना ? यहाँ पर भी मुझे सच्ची शान्ति कहाँ हैं ? हाय हाय ! धर्म के बिना मेरा क्या होगा? बस, अब तो कुछ धर्म करने लगँ और प्रतिदिन व्याख्यान सुनने आऊँ ।' ___ कहिये, यहाँ आकर्षिणी कथा ने क्या काम किया ? उस जीव को धर्म की ओर खींचकर यदि पहले से धर्म की ही बात की होती तो उसे आकर्षण ही नहीं होता, गुरू महाराज की बात उसके दिल में ही नहीं उतरती, वक्ता उपदेशक के प्रति उसके दिल में भाव नहीं जगते। आकर्षण हो, तो उनकी आगे-आगे की बात ग्रहण करे | आकर्षिणी कथा यह काम करती है, इसलिये यह भी धर्मकथा है |
इसीलिये तो कपिल केवली भगवान ने चोरों को पहले रास में गवाया कि 'मनोहर नेत्र - गात्र वाली रमणियाँ रास में साथ में हो, तो कितना मजा आये ?' इससे चोर खुश हुए, आकर्षित हुए कि सुनें तो सही, ये आगे क्या कहते हैं ? वहीं तुरन्त केवली भगवंत टेक गवाते हैं कि 'बोध पाओ । क्यों बोध नहीं पाते ? इतने में क्या मोहित हो जाते हो ? करने योग्य कार्य कर लो, नहीं तो मरण तुम्हारे पास आ रहा है।'
चोर अब भी समझते नहीं हैं कि करने योग्य क्या है ? परन्तु आकर्षित हुए हैं, इसीलिये आगे सुनने के लिये उत्सुक बने हैं । __ अब कपिल महर्षि गवाते हैं, उसमें विक्षेपिणी कथा कहते हैं । अर्थात् चोरों को स्त्रियों के प्रति जो आकर्षण है, उसमें विक्षेप पैदा करते हैं, उनके आकर्षण को काटने का प्रयत्न करते हैं । वे आगे गवाते हैं“असुइ - मुत्त - मल - रुहिर - पवाह - विरुवयं, वंत - पित्त - दुग्गंधि - सहाव - विलीणयं । मेय मज्ज - वस फोप्फस, - हड्ड - कलियं, चम्ममत्त - परछायण - जुवइसत्थय।। संबुज्झह किं न बुज्झह...
अर्थात् बाहर से रमणीय दिखनेवाला भी युवती समुह अन्दर से कैसा है ? अशुचि, मूत्र, मल और खून के प्रवाह से बीभत्स ! वमन, पित्त और दुर्गन्धी स्वभाव वाले मैले पदार्थों को अन्दर छूपाकर रखने वाला, चर्बी-मांस - नसे - फेफड़ों व हड्डियों से भरा हुआ और सिर्फ बाहर के ढक्कन रूप सुन्दर चमड़ी से आच्छादित है, ... बोध पाओ । क्यों बोध नहीं पाते ? क्यों नहीं समझते ? '
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