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घर में चूहा छज्जे पर कुछ अनाज के दाने मिलने पर वहीं पर मस्त होकर फिरता रहता है, तो उस पर दया आयेगी न ? कि 'यह इसमें अंध बनकर यहीं चिपका रहता है, पर बाद में बिल्ली चुपके से जाकर इस पर टूट पड़ेगी तब इसका क्या हाल होगा ?' इस प्रकार धर्म समझने वाले को जहाँ अमीर व विषयसुख में लुब्ध बने हुए जीव पर दया आती हो, तो इस पर ईर्ष्या होगी ही कहाँ से ? इसी प्रकार उसे उसकी बहुत आतुरता भी क्यों रहेगी ? अतः वर्तमान काल में भी उसे चिन्ता • संताप ईर्ष्या - आतुरता की पीड़ायें नहीं हैं ।
(४) कभी अचानक पैसे चले भी गये, पत्नी या पुत्र मरा, तो भी धर्म की समझ से पहले से ही उसने सब संयोग नश्वर ही समझ रखे होने से रोएगा नहीं । पैसे जाने पर वह समझेगा कि 'जैसे शुभाशुभ कर्मों का उदय हो, वैसा ही होगा। चलो, इसमें भी हमें धर्म में अधिक जागृत करने का कोई संकेत होगा ।' पत्नी या पुत्र मरने पर यही विचार करेगा कि 'मुझे भी चेतना पड़ेगा। मैं भी न जाने कब रवाना हो जाऊँ? ये बेचारे धर्म साधे बिना ही मेरे मोह में जीवन पुरा कर गये, अब उनका क्या हुआ होगा ?' यदि सद्गत जीव अच्छा धर्म करके गया है, तो जीवन कुछ अंशों में सार्थक कर गया । वे अन्त में समाधि में गये हैं, इसीलिये सद्गति ही पायी होगी, अतः चिन्ता की कोई बात नहीं । मुझे स्वयं के लिये विशेष सावधान बनने की नोटिस मिली है, अतः अब मैं विशेष रूप से धर्म में जुड़ जाऊँ और अर्थ - काम की ममता विशेष रूप से कम करूँ।' इस प्रकार धर्मी जीव स्वस्थ रहता है ।
(५) धर्म पुरूषार्थ में मानने वाला जीवन में और अन्त में भी मुख्य रूप से धर्म में ही चित्त रखता है, धर्म सुकृत करता रहता है, झूठ-अनीति, निन्दा - ईर्ष्या
मद आदि खतरनाक दोषों से दूर रहता है, जिससे उसका परलोक अच्छा बनता
है, मरने के बाद भी ऊँची सद्गति और सुख शान्ति का अनुभव करता है ।
इस प्रकार धर्म से यहाँ और परलोक में सच्ची सुखशान्ति मिलती है, उसके दिल में दुःख संताप की कोई होली नहीं सुलगती । इसीलिये अनर्थकारी अर्थ-काम को महत्त्व न देते हुए धर्म में ही लग जाना चाहिये, नहीं तो परलोक में तिर्यंच
नरक के अवतार में विडंबना का पार नहीं होता !!' इस प्रकार धर्मपुरुषार्थ में माननेवाले कहते हैं ।"
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आकर्षिणी आदि कथा का सेठ पर असर :
आचार्य महाराज का यह उपदेश सुनकर सेठजी तो काँप उठे । उनके दिल में
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